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Saturday, July 23, 2016

मैं डरपोक हूँ, शायद इसीलिए कवि हूँ।

मैं डरपोक हूँ, शायद
इसीलिए कवि हूँ।
बादल की गड़गड़ाहटों से
डरे सहमें एक बच्चे की तरह
मैं भी भावनाओं की 
इस अँधेरी कोठरी में दुबक
अंतस् में ही बरस, स्वयं को
बहा ले जाता हूँ।
अँधेरी कोठरी की
खिड़कियों से झिरता
बाहर का उजास देख,
रीते धार को छोड़, यहाँ से
निकल भागता हूँ।
बाहर रोशनी से नहाई
चमकती हरी पत्तियों को देख
इनके झुरमुटों के बीच पसरे
अँधेरों में, डर तलाश कर,
फिर से अंतस् में छिप,
कविता रचा करता हूँ।
आखिर में, अंतस् में ही बरस
धीरे-धीरे सूखकर
निडरता की रेतीली धार ले
दुनियाँ में खो जाता हूँ।
अब न मैं हूँ, न उजाले में
धूप में चमकती हरी पत्तियाँ हैं
और न इसमें छिपा कोई अँधेरा है,
अपने अंतस् के इस रीतेपन के साथ
एक अदद डर तलाशता , दर दर
कविता के लिए भटकता हूँ।
और एक अदद डर
मेरी कविता की अर्थवत्ता है।
यह गजब का मनोरंजन है, क्योंकि
मैं डरपोक हूँ, शायद
इसीलिए कवि हूँ।
---------विनय
किसी की शाम-ए-उदास हुआ करती हैं, 
और मैं तो उदास-ए-सुबह से गुजरता हूँ। 

वो अकसर कहा करते हैं, यहाँ नस्लें उदास हुआ करती हैं, 
मैंने तो देखा है, यहाँ उदासियाँ अपनी नस्लें लिए फिरती हैं।

जनता का राज है, संविधान है और कानून का डंडा है, 
फिर भी हमारे देश में ये गुंडे और माफिया क्यों जिंदा हैं।

गर न बदल सके दिमाग आपका, तो हम खंजर लिए घूमते हैं। 
अपना बनाने का जुनूँ इतना, सर ही कलम कर दिया करते हैं।।

यह भी बहुत अजीब है कि, बरसने के लिए मौसम चाहिए। 

जैसे सब अपना सा..!

धूप-छाँव सी जिन्दगी में 
मैं अपलक निहारता हूँ
अपने छोटे से बगीचे को 
जिसकी नम जमीं पर बैठी
चिलचिलाती धूप से बचती
नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों को
और तो और यहीं पर
इन सब के बीच में ही
आगे पीछे पैरों को फैलाए
पेट के बल आराम फरमाती
उस गिलहरी को..
देख इन्हें मेरे अन्दर भी जैसे
कोई बाग लहलहाने लगा हो
और इस धरती-पट के चित्र में
मेरे शरीर की सीमा रेखाएं
मिटती जा रही हों, अब
मैं धरती और आकाश में
सीमा विहीन फैला हुआ सा
जैसे सब अपना सा..!!
               -विनय