निर्झर झर चुका है,
शेष बचे रेती पर
सूखे कठोर पत्थर के टुकड़े
गीत गा रहे हैं, बस,
पुनः सृजन कर दे
जल के धवल प्रपात का
हृदय हो मौन
गीत वही है गाता, पर
कहाँ बची यह अभिलाषा
यहाँ कहाँ कवि की मधुशाला,
फिर भी केवल बची आह
लिए परिवर्तन की चाह
कर रही निरंतर प्रतिच्छा
अजस्र श्रोत निर्मल का
अवश्य अवश्य होगा
प्रकृति के अंचल से
कल कल का निनाद
सूखी सिकता की सीपी में
होंगे फिर मुक्ता के दाने
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