धूप-छाँव सी जिन्दगी में
मैं अपलक निहारता हूँ
अपने छोटे से बगीचे को
जिसकी नम जमीं पर बैठी
चिलचिलाती धूप से बचती
नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों को
और तो और यहीं पर
इन सब के बीच में ही
आगे पीछे पैरों को फैलाए
पेट के बल आराम फरमाती
उस गिलहरी को..
अपने छोटे से बगीचे को
जिसकी नम जमीं पर बैठी
चिलचिलाती धूप से बचती
नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों को
और तो और यहीं पर
इन सब के बीच में ही
आगे पीछे पैरों को फैलाए
पेट के बल आराम फरमाती
उस गिलहरी को..
देख इन्हें मेरे अन्दर भी जैसे
कोई बाग लहलहाने लगा हो
और इस धरती-पट के चित्र में
मेरे शरीर की सीमा रेखाएं
मिटती जा रही हों, अब
मैं धरती और आकाश में
सीमा विहीन फैला हुआ सा
जैसे सब अपना सा..!!
-विनय
कोई बाग लहलहाने लगा हो
और इस धरती-पट के चित्र में
मेरे शरीर की सीमा रेखाएं
मिटती जा रही हों, अब
मैं धरती और आकाश में
सीमा विहीन फैला हुआ सा
जैसे सब अपना सा..!!
-विनय
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