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Sunday, July 14, 2013

विरथी

किनसे कहूँ, मैं मन की बातें,
मुख्तलिफ यहाँ का मंजर है|
ले रथ का टूटा पहिया, जैसे
रथियों में विरथी अभिमन्यू है|

चक्रव्यूह के इन द्वारों का,
रहस्य अगम, अगोचर है|
मतलब क्या उन सीखों का,
हाथों में केवल टूटा पहिया है|

कुरुक्षेत्र का यह रण कैसा,
शामिल जिसमें सब अपने हैं,
रिसता रिश्ता ले घावों का,
लड़ता एक अकेला अभिमन्यू है|

रथियों के रथ से पूंछो,
उनका रथ भी हमसे है,
उन बातों को कैसे समझे
विरथी क्यों यह अभिमन्यू है|

रहस्य नहीं इसमें कोई 
स्वांग यह रचा गया है,
हार नहीं टूटे पहिये का
रथियों का नहीं निशा है

किसने देखा, ऊँचे बुर्जों को
चौसर जिसमें खेला जाता है|
विरथी कोई अभिमन्यू हो,
पासा ऐसा फेंका जाता है|

पासों का यह खेल पुराना
अब तक चलता जाता है,
अधिकारों का द्वंद्व निराला
उल्टी चालों में छिप जाता है

दृढ प्रतिज्ञ यदि हो जाओ 
डूबा सूरज उग आता है,
अपनी-अपनी आहुतियों से   
यह मंजर भी बदला जाता है|

----------------------------------------------------- विनय