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Sunday, March 23, 2014

ये पैमाने...!


ऐ ज्वालामुखी...!
मेरे अन्तस के,
तेरे मुहाने पर मैं
क्यों बैठा हूँ...?
राख और शोले दबाए,
धधकता हुआ सा
क्यों सिसकता हूँ...!

ऐ सागर...!
मेरे अन्तस के,
तेरी लहरों में
क्यों खो जाता हूँ...!
पाल बंधे एक
नौका सी,
हवा के झोकों से
क्यों डर जाता हूँ..?
ऐ पैमाने....!
इस दुनियां के,
राही ठिठका क्यों
इन राहों में..?
तूने क्या कुछ बदला
रिस रिस कर
क्यों पहुंचा तू
मेरे अन्तस में..?

ऐ पैमाने..!
इस दुनिया के,
आखिर बिन तेरे, यह
दुनियाँ कितनी सुन्दर थी..!
सूरज झाँका बादल में,
चंदा झिलमिल जब पानी में..!

ऐ बेहद..!
मेरे अन्तस के,
तू भूला हद
क्यों ढल आए
इस पैमाने में..?
क्या देखा है उन
गुबारों को...?
ढका हुआ जिसमे सूरज
चंदा ठिठका सूखे में..!
---------------------------- विनय