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Thursday, August 18, 2016

बे-तुक की कविता!

मैंने तो देखा है, और 
शायद आप ने भी देखा हो 
अकसर हम अपने घर के सामने के 
घने हरियाले पत्तियों वाले पेड़ों को, 
घर की खूबसूरती दिखाने के लिए 
बेदर्दी से कटवा दिया करते हैं।

लेकिन लोग-बाग, इन पेड़ों के प्रति 
थोड़ी सी सहृदयता भी दिखा देते हैं 
जैसे कि इन पेड़ों को बौना बनाकर 
अपने गमलों में सजा लिया करते हैं।

और, गमले की थोड़ी सी मिट्टी में 
बेदर्दी की काँट-छाँट सह कर 
ये पेड़, अपने विवश-बौनेपन से 
हमारी हवेली की भव्यता में 
आखिर, चार-चाँद लगा देते है।

जमीन से ऊपर उठ चुके हम लोग 
अपनी भव्यता के कायल हैं, 
तभी तो, पनपने वाले पौधों में 
अपनी भव्यता की आड़ समझ 
बौनेपन का रोग लगा देते हैं।

हाँ, अब हम मिट्टी-पानी के भय से 
अपने चारों ओर की जमीन को 
बेतरह बेहिसाब और पुख्ता, और 
पक्का कर लिया करते हैं 
जैसे कि हम, अकवि होने के डर से 
कविता कविता लिख वाहेच्छा में 
एक पक्का कवि बन लिया करते हैं।

फिर देखिए, भव्यता के हम अनुयायी 
जमीन और मिट्टी से ही उठे हुए लोग 
मिट्टी से जुड़े हर उस पौध को 
अपनी बनाई पक्की जमीन पर, बेजान 
खरपतवार समझ लिया करते है।
फिर, इनके उगने या फैलने के 
विकल्पों को सीमित कर इन पर 
पाबंदी लगा दिया करते हैं। 
यदि बहुत ज्यादा हुआ तो इन्हें 
लान के बाड़े में थोड़ी सी मिट्टी दे 
शोभाकारक समझ भव्यता की तरह 
अपने लिए ही उगा लिया करते हैं।

हाँ, न जाने क्यों, अकसर 
हम अपनी भव्यताओं को भी 
जमीन से ऊपर उठा समझ लेते हैं 
तभी तो, वह तिरंगा भी किसी 
ऊँचे बुर्ज पर लहराया जाता है।

शायद, यह भी इन्हीं ऊँचाइयों से 
हमारी निचाइयों को परखता है 
जैसे कि कवि होने के गुमान में 
मैं अकवि, मेहनत कर 
बे-तुक की कविता करने की 
टुच्चई किया करता हूँ।
                               -विनय