Popular Posts

Monday, December 31, 2012

सेलिब्रेशन



नव वर्ष की पूर्व संध्या,

खाने से बच गए
रोटी के कुछ टुकड़े
बाहर सड़क पर 
फेंक दी, सोचकर  
कोई पशु आकर 
खाएगा इसे, पर
इसे फेंकने के पहले
मन का अंतर्द्वन्द्व
एलीटबस्ती में, यह
कूड़ा न समझ लिया जाए!
क्योंकि अब तो
रोटी की बात करना
पिछड़ेपन की बात
समझ लिया जाता है,
इसीलिए तो इस कूड़े को
बाहर सड़क पर
फेंकने की असभ्यता से,
बचना चाहा, और इसे
रात के अँधेरे में!
फेंकने की कोशिश की,
इसी बीच,
प्रतिदिन से अलग
बेधती तन्द्रा को,
कानों में गूंजी,
तमाम स्वरलहरियां,
अरे! यह तो है
नव वर्ष की पूर्व संध्या!
मुझे भी इसे
सेलिब्रेट करना होगा
सो तो मैंने कर लिया-
रोटी के टुकड़े को फेंक,
किसी की क्षुधा शांत होगी
अर्जित यह पुण्य सोच!
फिर, जलते बल्व को
बुझाया, बिजली की
बेवजह खपत सोच|
वापस लौटा, अपने को
दर्पण में निहारा, देखा
पिचके गालों और
भद्दे होते चेहरे को,
दूध का गिलास ले
स्वास्थ्य की शुभेच्छा में,
पी डाला, सोचा,
अभी होगा नूतनता का
धूम-धडाका,
मैंने भी तो इसे,
सेलिब्रेट कर डाला!
   ------------


Saturday, December 8, 2012

छाया


छाया, तुमसे दूर, मैं
कहाँ जा पाऊँगा,
चारो ओर से घिरा, क्या
तुम्हें विस्मृत कर पाऊँगा
फिर भी, क्यों,
भटक जाता हूँ,
गैर से क्यों,
अपना पता पूंछता हूँ
छाया, उत्तर दो,
वहां क्यों भीड़ है
किसी का किसी पर
कैसा आरोप है|
छाया, कोई तुमसे
नहीं पूंछता, तुमसे
अधिक, भला और
कौन है जानता|
छाया, देखो तो,
यह कैसा व्यंग्य है,
तुम उसे जानती, वह
तुम्हें नहीं जानता
हाँ, उसके हरदम साथ|
छाया, शायद वह
देख नहीं पाता,
अँधेरे में भी हो,
भनक नहीं पाता
छाया, इसमें भला
तुम्हारा क्या दोष,
अँधेरे में, रहने का
करता वह अभ्यास
छाया, पर दुखी
मत होना, तुम तो
उसके सदैव साथ हो|
----------------------

Saturday, November 24, 2012

भूत


विचारों में निमग्न ,
पहुंचा, नदी के रेती पर,
वहां बैठ, विचारों की
श्रंखला में ऐंठ,
अनबूझे, प्रश्नों में उलझ,
टकटकी लगी थी
नदी की धारा पर!
जहाँ, नदियों का संगम,
एक, दे धारा को गति,
अपना अस्तित्व
समेट रही थी!
यह गति, क्षणिक
भंवरों में उलझ, आगे
बढ़ जाती थी !
आह ! यह त्याग !
सोचा मैंने
एक नदी का |
तभी आहट, देखा,
कुछ लोग, उसे
अपने कन्धों पर,
उठाए, ले जा रहे थे,
वह कारुणिक दृश्य !
नहीं, अरे ! हम भी तो,
अपनी-अपनी,
मृतात्माओं का,
बोझ ढोते हैं, फिर,
क्यों हों उदास !
वह शव, जीवित हम,
वह चेतनाशून्य, हम
भावशून्य, एक जीवन का
तोड़ बंध, हम जड़ता का
बाँध बंध, दूसरों के सहारे,
अपनी-अपनी
चिता तक पहुंचते हैं !
और, जलकर, जलाकर,
राख का ढेर
बना देते है |
हुतात्माओं सा,
रूप धर, भूत बन,
मंडराते हैं |
____________

Sunday, November 18, 2012

मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ !


कभी हवा में हरहराते
पीपल के पत्तों को देखा है
मैंने तो देखा है
सुन हर-हर ध्वनि
मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ
कभी जलतरंगों पर
चांदनी को देखा है
मैंने तो देखा है
थिरकता चाँद देख
मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ
कभी सुबह और सांझ के
सूरज को देखा है
मैंने तो देखा है
अरुणिमा को देख
मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ
कभी घनी रात में
आसमा को देखा है
मैंने तो देखा है
टिमटिमाते तारों को देख
मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ
कभी किसी महफ़िल में
सुरों के साज को देखा है
मैंने तो देखा है
वादकों को झूमते देख
मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ !
      ---------------

Saturday, November 3, 2012

व्यापार


कवि की कल्पना का
यह कैसा आलोड़न,
भावों का क्षिप्र प्रवाह
या मन का निःस्वास |
पीड़ा का यह व्यापार ,
शब्द जाल में बंद भाव
खेल कर विचित्र दांव ,
कैश हो रहा भाव |                                                     
जीवन के दुःख और द्वंद्व ,
उलझा हुआ रहस्य ,
शब्दों का कठिन जाल
सुलझाएगा कोई तार !
मन का हलका कर भार ,
चाह रहा अपना प्रसार
या अनुभूति का व्यापार ,
अनुभव कर कहें वाह !
सिमट फिर पन्नों में ,
थैले में ढल , ढोएंगे ,
हल्दी , धनियाँ और दाल
हिस्से में, प्रसिद्धि का ढाल !

Monday, October 15, 2012

निर्झरिणी


कर नव गुल्म लता तरु पादप
हो नव जीवन, नव उत्फुल्ल तरंग
नव प्राण सजा तुम बहो बहो
ओ निर्झरिणी तुम झरो झरो

शुचि सुन्दर रूप बना
नव उर आशा मनोहर संचित
आप्लावित कर कुलिश परस तुम बहो बहो
ओ निर्झरिणी तुम झरो झरो

परुश मरू के तपते तल को
शीत वरि सा कर सिंचित
स्नेह रूप धर तुम बहो बहो
ओ निर्झरिणी तुम झरो झरो

कर धवल वरि सा निर्मल मन
विराट रूप पाने को आतुर
सागर ओर तुम बहो बहो
ओ निर्झरिणी तुम झरो झरो
--------------------------------------  

Saturday, September 22, 2012

बाबू के वे चेहरे















मैं नंग-धडंग,
हँसता हुआ, बाबू के सामने
आकर खड़ा हुआ, और,
बाबू का, मुझे घूरता
वह चेहरा, बरबस,
याद आ जाता है,

बचपन में,
उसी घूरते चेहरे से,
सहम, मैंने अपने को
ढक लिया था !
बाबू की, अनकही,
उन घूरती आँखों ने, जैसे
बहुत कुछ कह दिया था,

धीरे-धीरे, मेरे अन्तस् में,
ऐसे ही, बचपन में देखे 
बाबू के चेहरे से,
न जाने, कितने
चेहरे उग आए थे,

वे उगे हुए चेहरे,
बाबू जैसा ही, मुझको
अकसर घूरा करते थे,
हाँ, मुझ अनगढ़ को,
हरदम गढ़ते रहते थे |

      

एक दिन सहसा,
दिखा, वह हाईवे !
दौड़ना चाहा था उस पर,
बाबू का, अब वही
घूरता चेहरा, झुर्रियों भरा,
कृशकाय सा, दिखाई
दिया था !

आकस्मात ! 
बाबू के उस चेहरे से 
मुँह मोड़, मैं 
हाईवे को, पकड़ने 
चल पड़ा था,

और तो और,
मेरे अन्तस् में, उगे
उस जैसे, वे तमाम चेहरे
मुझे, भयाक्रांत कर रहे थे |
धीरे-धीरे, वे चेहरे, फिर 
मुरझाने लगे थे,

लेकिन, मैं दौड़ता, बेखबर,
उस पथ पर,
उपेक्छित वे सारे चेहरे,
एक-एक कर, सूख
गए थे सब !

        

हाईवे का गंतव्य कहाँ,
तनिक सोच, निहारा,
अरे ! यह पथ !
किनारों पर इसके सांय-सांय,
और यह वियावान !
देख इसे, सहसा, मैं
ठिठक पड़ा, लगा देखने
अन्तस् के खालीपन को,
कहाँ छूट गए, मुझे घूरते
वे चेहरे, ओझल से क्यों
बाबू के वे सब चेहरे,

शायद, सब सूख गए !
अब तो, मैं, अन्तस् के,
उन घूरते चेहरों के बिन
निपट अकेला, अनगढ़,
बेशर्म खड़ा, केवल
हाँफ रहा !
              --विनय