नव वर्ष की पूर्व संध्या,
खाने से बच गए
रोटी के कुछ टुकड़े
बाहर सड़क पर
फेंक दी, सोचकर
कोई पशु आकर
खाएगा इसे, पर
इसे फेंकने के पहले
मन का अंतर्द्वन्द्व,
“एलीट”
बस्ती में, यह
कूड़ा न समझ लिया जाए!
क्योंकि अब तो
रोटी की बात करना
पिछड़ेपन की बात
समझ लिया जाता है,
इसीलिए तो इस कूड़े को
बाहर सड़क पर
फेंकने की असभ्यता से,
बचना चाहा, और इसे
रात के अँधेरे में!
फेंकने की कोशिश की,
इसी बीच,
प्रतिदिन से अलग
बेधती तन्द्रा को,
कानों में गूंजी,
तमाम स्वरलहरियां,
अरे! यह तो है
नव वर्ष की पूर्व संध्या!
मुझे भी इसे
सेलिब्रेट करना होगा
सो तो मैंने कर लिया-
रोटी के टुकड़े को फेंक,
किसी की क्षुधा शांत होगी
अर्जित यह पुण्य सोच!
फिर, जलते बल्व को
बुझाया, बिजली की
बेवजह खपत सोच|
वापस लौटा, अपने को
दर्पण में निहारा, देखा
पिचके गालों और
भद्दे होते चेहरे को,
दूध का गिलास ले
स्वास्थ्य की शुभेच्छा में,
पी डाला, सोचा,
अभी होगा नूतनता का
धूम-धडाका,
मैंने भी तो इसे,
सेलिब्रेट कर डाला!
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