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Saturday, September 17, 2016

कविता का विघटन

सोचता हूँ, और जैसा कि, मैं 
अकसर कभी-कभी सोच लेता हूँ.. 
बहुत दिन हुए कोई कविता लिखे 
क्यों न आज कोई कविता लिख दूँ।

मेरा लरजता कवित्व-भाव बेसब्री में,
उस अँधेरे, कबाड़खाने का
दरवाजा खटखटाता है, जिसमें
बेतरतीब सी निष्प्रयोज्य चीजें
आपस में बतियाते हुए, अपनी उपेक्षा में
आड़े, तिरछे, औंधे, उतान, रूठे हुए 
बिम्ब की प्रतीक्षा में कंडम से पड़े हैं । 

भड़भड़ती आवाजों से सजग, वे 
अपनी उस बेतरतीबी में ही, जैसे 
मेरे कवित्व-भाव को दुत्कारने लगे हैं। 
मनुहार पर, किसी रूठे नेता की तरह 
चढ़ती उतरती कीमतों को देखकर 
कह, अब, मँहगाई "दाल" नहीं, फिर 
अपने नए बिम्ब का पता पूँछते हैं। 

कबाड़खाने के दरवाजे पर ही खड़ा 
मेरा कवित्व-भाव, पैंतरेबाजी देखता है 
राजनीतिक दल में किसी नेता को 
बिना हील-हुज्जत सिंहासन जरूरी है 
तो कविता में भी, भावों की प्रतिष्ठा में 
नए नए बिम्ब तलाशना जरूरी है। 

मेरा कवित्व-भाव बेचैन बिम्बाभाव में 
तमाम भावों की उठापटक में, और 
भावों की बिम्बलोलुपता देख, उन्हें 
निष्प्रयोज्य मान, अपनी कविता को 
विवश, विघटित होते देखता रहता हैं।
                                                --विनय

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