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Tuesday, April 8, 2014

स्त्री मन की पीड़ा...




हाँ वह स्त्री है
उसकी पीड़ा कोई तो समझे

वे तमाम छुअन चालाकी के
भेदते उसके तन मन को
क्या समझे क्या न समझे
कोई तो समझे उस मन को

तमाम विमर्श का ले चादर
ढकती रहती वह तन मन को,
उठती उपहास उंगलियाँ देख
सहती विवश झीने आँचल में|

देवी की वह उपाधि निराली
पुरुष पुंगव के इस रण में
अब तो केवल वह ढाल बनी
इज्जत के झूठे इस रण में|

वरदायिनी बन हो गई पूजित
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित देवी
हत महिषासुर तो प्रसन्न देव
निरस्त्र हुई फिर से यह देवी

देवों से मिलता वरण अस्त्र
हर्षित होती वह ले वरमाला
दारुण दुःख तब बना हरण
अग्निपरीक्षा की पीती हाला।