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Monday, January 27, 2014

व्यंग्य

मैं,  और मेरा उद्देश्य
मुझ पर यह कुटिल व्यंग्य 
सहन कर इसे 
जीवन पग धरता हूं!
पर, इसे पाने के अर्थ-
प्रथम मैं खोजता 
अपना अस्तित्व।

यह क्रूर चक्र

इसमें उलझ
होकर दिग्भ्रमित
उद्भ्रांत सा हो जाता हूँ।
हूँ साधना का हेतु, पर
कर इसे विस्मृत 
साधक स्वयं बन जाता हूँ !

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