भरे बाजार में, मैं ले कलम
लबादे बुना करता हूँ
स्वयं ओढ़ा और ओढ़ाया
फिर ताली बजाया करता हूँ
पर सहम, अपने प्यारे बच्चे की,
छुटपन में कही उन बातों को
मैं, याद किया करता हूँ,
किसी ने देख उसे नंगा
हंसते हुए उसकी ओर, जब,
किया था इशारा, चिढ़कर
मुझसे पूँछा था उसने-
“मुझ पर क्यों हँस रहे हैं”
“तुम नंगे हो चिढ़ा रहे हैं”
सुन मेरा यह उत्तर
मासूमियत से इन शब्दों में
अकस्मात, वह बोल उठा था,
‘मुझ पर यह क्यों हँसते हैं
‘अन्दर से तो सब नंगे हैं’
आज सोचता हूँ, मासूम से
इन शब्दों का अर्थ मैं
क्यों नहीं समझ सका था
एक हम्माम में ही अब तक
क्यों खोया हुआ था,
इंसान हूँ, इंसानियत है,
फिर, क्यों कर
लबादा बुन रहा था?