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Tuesday, April 26, 2016

शायद आंधी आ रही है..

फैला हुआ वह मैदान
उसमें खड़ा वह एक अकेला पेड़
तपती दुपहरी में
उसके नीचे वे तीन-चार श्रमिक
जम्हुआइ से ले रहे
पास में ही अधकटा गेहूँ का खेत
सुनहली बालियों से अटा पड़ा
कोई बताए सरकार ने
गेहूँ बोये हैं या कि खेत काटे हैं
शायद वह सरकार है
जो इनमें से कुछ भी नहीं किया
हाँ, वे खेत के मजूर उठ बैठे
अपने-अपने हंसिये ले
खेत की ओर फिर चल पड़े
पेड़ की घनी छाया का सूनापन
कहीं से कोई कुत्त आकर
उसके नीचे बैठ जम्हुआने लगा है
फिर आये कुछ लोग
अपनी कुल्हाड़ियों के साथ
कुत्ते को दुरदुराया और
पेड़ की जड़ों पर कुल्हाड़ी
चलाने लगे हैं
खेत में गेहूँ काटते मजूर
उचक कर उसे देखने लगे हैं
कुत्ता दूर खड़ा मजूरों के
फेंके गए खाने की थैलियों को
अब चाटने लगा है
वहीँ दूर आकाश में
धूल का गुबार दिखाई दे रहा है

शायद आँधी आ रही है!
          ---------विनय

मैं इंसान बनने का/ काढ़ा पिए हूँ..!

हाँ, भाई मैं इंसान हूँ, लेकिन
इसका मतलब यह तो नहीं
कि मैं इंसान नहीं हूँ !

आप समझते हैं..?
मुझमें इंसान होने की -
सारी खूबियाँ हैं!
देखिए न कि -
मैं कितना योग्य हूँ !
मुझमें थोड़ी-थोड़ी सी
सब चीजें मिली है, यानी कि
जैसे मैं इंसान बनने का
काढ़ा पिए हूँ..!

चौंकिए नहीं,
मैं इसलिए इंसान हूँ कि-
मैं कवि नहीं हूँ,
लेखक नहीं हूँ,
चितेरा नहीं हूँ,
यह सब बनूंगा तो-
फिर इंसान कहाँ बनुंगा ?

मेरे अन्दर की वासनाएँ-
मुझे कवि बनाती है !
मेरे अन्दर की सारी बुराइयाँ-
मुझे लेखक बना देती है !
और जब मैं चितेरा बनता हूँ, तो-
लफ्फाज बन जाता हूँ !
बनकर यह सब शायद कि-
काढ़े का असर निकालता हूँ..

अब आप कहेंगे कि
इसके अन्दर की
इंसानियत मर गयी है!
और यह झूँठ बोलता है !

सच भाई मेरे,
इंसान कहाँ मरा करता है?
मेरे हिसाब से तो,
इंसानियत मरती है और
इंसान जिए जाता है, काहे कि
यह तो सच और झूँठ का
काढ़ा पिए रहता है, जो
बड़े हिम्मत का काम है

रोते, हँसते, गाते, चिचियाते
केवल यही जिए जाता है,  
इंसान से इतर हो जाने की
इंसानियत भी सहे जाता है,

कभी-कभी यहीं धरती पर
यह काढ़ा भी मिल जाता है
पीकर इसे वही इंसान फिर से
पुनर्स्थापित हो जाता है|
और इंसान बने रहने का
इंसानियत से ज्यादे  
सुख लूटता है, क्योंकि
इसी पर तो आप सब का
इंसानियत भी लोटता है!

      --------विनय