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Saturday, February 9, 2013

ये बुलबुले


टप....टप ...टप ...!
छप्पर की ओरी से
पानी की गिरती वे बूंदें,
उनसे बनते ये बुलबुले
बचपन में देखा करता
हाँ , वारिश के दिनों में
अकसर ऐसा होता
बूंदों से बने कटानों  में,
बुलबुलों का वह बहना,
विस्मित, उन्हें निहारा करता|
उनका रंग, सतरंगी रंगों का 
मन को प्यारा लगता
न जाने क्यों उनसे
एक नाता बनता,
हाँ , वही बूंदें,
बुलबुले बना अपनी धारा में,
उन्हें ,बहा ले जाती !
ये बुलबुले ! 
एक के पीछे एक बुलबुले !!
पीछा करते एक दूसरे  का ,
धारा में बहते जाते|
विजयी होता, वही बुलबुला
अधिक देर तक अस्तित्व बना,
दूर तक जो बह जाता।
देखा लिया था,
उनकी प्रतियोगिता....!
कोई बुलबुला दूसरे से मिल ,
समेट उसका आकार ,
अपने को बड़ा बना लेता ,
तो कोई कंकड़ से टकरा,
अस्तित्व खो देता ,
और फिर वह फूटा
पानी में मिल जाता।
कोई  दूर जाता 
आँखों से ओझल होता
आखिर में वह भी मिटता,
धारा में खोता।
ताली बजा कर प्रतियोगिता का,
समापन मैं करता..!
आज सोचता हूँ, 
क्या खूब रही !
मैंने तो बचपन में ही...,
देख लिया था...,
बुलबुलों की प्रतियोगिता!!

Friday, February 8, 2013

प्रेम की राह


प्रेम की राह में , मैं बढ़ता गया हूँ
देख तुम्ही को , तुम्ही में ढलता गया हूँ,

तेरे प्रेम में जो अश्क गिरते रहे हैं
पीकर ह्रदय में उन्हें छिपाता रहा हूँ|

ज़माना भी पुकारेगा मुझको तुम्ही सा
तुम्हारे रूप से जब मेरा रूप होगा

देखना प्रेम का यह रूप यूँ ही न होगा
सभी रूप इससे अभिभूत होगा|

दग्ध ह्रदय की ज्वाला भी होगी
सभी पर इसकी खुमारी भी होगी

बजेंगे तार तब, सब इस राग में
गूंजेगा यही तब, सभी में रोर बन के|

मिटेंगे भेद तब सारे जहाँ के
प्यारे सभी होंगे प्यारे सभी के|

Saturday, February 2, 2013

संचित निधि


अज्ञान के निविड़ अंधकार में
भटकता हुआ, मैं अकेला
उन्मुक्त, विचरण कर रहा
आकांक्षा ले आकार
जाज्ज्वल्यमान जीवन का,
इसे अभीष्ट बना,
विस्मृत कर-
पुनः मर्त्यता को, और
विजिगिषा हेतु,
धीरे-धीरे क्षीण हो रहा!
कौन तोड़ेगा यह विभ्रम
अस्तित्वहीन, अननंतर,
खो जाएगा, यह
साध्य सकल!
किन्तु हेतु क्या हो,
बनी रहे जो
चिर अभिलाषा
यह क्या...! प्रतिध्वनि..!
है केवल वह-
मानवपन
सदाकार, अमर्त्य
एक संचित निधि!