मैं नंग-धडंग,
हँसता
हुआ, बाबू के सामने
आकर
खड़ा हुआ, और,
बाबू
का, मुझे घूरता
वह
चेहरा, बरबस,
याद
आ जाता है,
बचपन
में,
उसी
घूरते चेहरे से,
सहम,
मैंने अपने को
ढक
लिया था !
बाबू
की, अनकही,
उन घूरती
आँखों ने, जैसे
बहुत
कुछ कह दिया था,
धीरे-धीरे,
मेरे अन्तस् में,
ऐसे
ही, बचपन में देखे
बाबू
के चेहरे से,
न
जाने, कितने
चेहरे
उग आए थे,
वे
उगे हुए चेहरे,
बाबू
जैसा ही, मुझको
अकसर
घूरा करते थे,
हाँ,
मुझ अनगढ़ को,
हरदम
गढ़ते रहते थे |
२
एक
दिन सहसा,
दिखा,
वह हाईवे !
दौड़ना
चाहा था उस पर,
बाबू का, अब वही
घूरता
चेहरा, झुर्रियों भरा,
कृशकाय
सा, दिखाई
दिया
था !
आकस्मात
!
बाबू के उस चेहरे से
मुँह मोड़, मैं
हाईवे को, पकड़ने
चल पड़ा था,
और
तो और,
मेरे
अन्तस् में, उगे
उस
जैसे, वे तमाम चेहरे
मुझे,
भयाक्रांत कर रहे थे |
धीरे-धीरे, वे चेहरे, फिर
मुरझाने
लगे थे,
लेकिन,
मैं दौड़ता, बेखबर,
उस
पथ पर,
उपेक्छित
वे सारे चेहरे,
एक-एक
कर, सूख
गए
थे सब !
३
हाईवे
का गंतव्य कहाँ,
तनिक
सोच, निहारा,
अरे
! यह पथ !
किनारों
पर इसके सांय-सांय,
और
यह वियावान !
देख
इसे, सहसा, मैं
ठिठक
पड़ा, लगा देखने
अन्तस्
के खालीपन को,
कहाँ
छूट गए, मुझे घूरते
वे
चेहरे, ओझल से क्यों
बाबू
के वे सब चेहरे,
शायद,
सब सूख गए !
अब
तो, मैं, अन्तस् के,
उन
घूरते चेहरों के बिन
निपट
अकेला, अनगढ़,
बेशर्म
खड़ा, केवल
हाँफ
रहा !
--विनय
No comments:
Post a Comment