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Thursday, December 10, 2015

सब अपनी-अपनी ही बोते हैं!

धरती पर पसरा यह बंजर, देख
जाने क्यों जी धक् कर जाता है।
यह मन सूनापन फिर देख वहाँ,
कराह, सिहर-सिहर सा जाता है।

मन के अंतस का सिहरनपन,
वहाँ झट दूब उगाने लगता है।
पर मिट्टी का वह बंजरपन,
जहाँ दूब झुलस यह जाता है।

सोचा, हाथों में ले खुरपी,
अब मिट्टी ही बदल देना है।
पनपे बिरवे और बीज यहाँ,
ऐसी मिट्टी वहाँ भर देना है।

साँझ ढले, कह रोई मिट्टी,
मुझको क्यों कर बदला है।
पत्थर से भी बन निकली,
तू खाद हमें नहीं दे पाया है।

खारापन लिए हृदय में, यह
मिट्टी सूखी आँखों फिर रोई है।
सोख लिया मेरा सब कुछ,
बंजर कह निर्दय तूने बदला है।

क्या कर लेगा उपजाऊपन से,
तू अपने मन का ही करता है।
मिट्टी मैं तो सब बिरवे की, पर,
सब अपनी-अपनी ही बोते हैं।

मैं तो सब बिरवे की थी जननी,
मेरे उपजाऊपन का यह पैमाना है।
पर जंगल -जंगल यह बात चली,
तूने जंगलीपन कह इसे दुत्कारा है।

जंगल-जंगल, पत्ते-पत्ते से ही,
यह मिट्टीपन बनता आया है।
पर क्रान्तिवीर बन कर तुमने,
यह कैसा उपजाऊपन लाया है?

बदलो! तुम मुझको बेशक बदलो,
बंजरपन तेरे मन की ही छाया है।
तेरे मन के इस खारेपन से, सोचो,
कोई उपजाऊ मिट्टी भी बच पाई है?

मैं बन क्रान्तिवीर निस्तेज खड़ा,
अब खुरपी हाथों से छूट पड़ी है।
अपलक देख रहा इस धरती को,
बालक ने फिर से माँ को देखा है।
             - विनय
               महोबा

Monday, November 30, 2015

जमीन का आदमी

किसी ने एक बार हरी दूब पर
अधलेटे देख मुझे
फेसबुक पर,
जमीन का आदमी बता दिया था
ऐसे में तो बड़ा आसान है
जमीन का आदमी बन जाना

आज सोचता हूँ
उस मखमली दूब को उगाने में
कितने मजदूरों ने
अपना पसीना बहाया था
प्यासे उन मजदूरों ने ही
अपने पसीने से सींच इसे
किसी खुरदुरे जमीन को
समतल भी बनाया था
फिर, बड़े जतन से इसपर
इस मखमली दूब को उगाया था।

और क्षण भर के लिए ही सही
इस मखमली हरी दूब पर अधलेटे
मैं भी, उन मित्र की निगाहों में
जमीन का आदमी बन गया था!

फिर तैयार इस जमीन के
ठेकेदारों के बारे में सोच
मैं मन ही मन मुस्कराया था
कि, मैं भी दूर से
इस पर लेटने चला आया था।

और, वे मजदूर आज भी   
कहीं किसी खुरदरी जमीन पर
हमारे लिए, फिर से   
मखमली दूब उगाने के लिए
मजदूरी ही कर रहे होंगे।

फिर मैं मुस्कराया,
और सोचा, हम सब ऐसे ही
जमीन दर जमीन
जमीन के आदमी बना करते होंगे।
और वे बेचारे मजदूर, हमें भी
अपना ही आदमी समझते होंगे!

                                -विनय (महोबा)

Wednesday, October 28, 2015

शिशुपन तो मेरा नग्न था

वह शिशुपन मेरा नग्न था
यह नग्नता तब कहाँ थी
कपडों में जब छिपा शिशुपन
यह नग्नता अब निखर गई।

आज हम जब सयाने हैं, तो
रोना कमजोरी की निशानी है
जन्मते ही तब तो रोना आया
यह भगवान् की बे-ईमानी है।

दुनिया से सीख कर हँसना
अट्टहास में अब बदला इसे
निश्छल वह खिलखिलाहटें
तमाम चेहरे अब सहम रहे।

खुदा से पाई नेमतों के
रह रह हमने अर्थ बदले
बैठ अपनी तंग गलियों में
राहगीरों के हम राह बदले।

                      -विनय

ये सींग कहाँ अब उगते होंगे...

इन उगते सींगों वालों को
तब हम देख लिया करते होंगे
रावण और महिषासुर को
तब पहचान लिया करते होंगे
आसान राम या दुर्गा बनना हमको
विष्णु शेषनाग पर भी जब सोते होंगे।

सहज नहीं देखना सींगों को
न जाने कहाँ अब ये उगते होंगे
अब भी उगते किसी नाभि में
ये सींग वहीं पर छिपते होंगे
दिग्भ्रमित हम भी अपने लिए
बस इन्हें अमृत ही समझे होंगे।

हम लिए राम और दुर्गा को
अपने-अपने मंच सजाते होंगे
इन सींगों के उलझे झगड़ों में
अब मंचों पर स्वांग रचाते होंगे।

कैसे कह दें विजयपर्व इसको
विष्णु ही जब शैय्या पर सोते होंगे
यह नवरात्र शुभदिन कैसे हो
अपने-अपने ईश्वर जब सोते होंगे।

अमृत समझते नाभि के विष को
जाने ये सींग कहाँ अब उगते होंगे।

                     --विनय  

Tuesday, October 27, 2015

आदमी खो गया है मेरा

बेचैनी है मुझमें
एक खालीपन सा लिए
फ़लक दर फ़लक
फिरा करता हूँ
ले ले कर तूलिका नित
नए दृश्य उकेरता हूँ


मेरा भागा हुआ आदमी
फलक दर फलक
गढ़ उसी को फिर से     
इन्हीं दृश्यों में उकेरता हूँ  

गायब हुआ वह मेरा आदमी 
फलक दर फलक इसी को   
यहीं पर खोज लिया करता हूँ
खोए अपने इस आदमी से
यहीं मिल अपना वह  
रीतापन भर लिया करता हूँ

हाँ यह तो समझता हूँ
मेरा आदमी खो गया है
जो फलक दर फलक
किसी दृश्य में
चस्पा होने भर के लिए
मुझसे ही भागता है  

पर वह जो आदमी है न,
वह तो अपने ही फलक में   
रहा करता  है!
वह बेदम तो है पर
उसी में जिया करता है
जीने की जद्दोजहद में
फलक दर फलक वह
भागा नहीं करता है

इसी आदमी के हाथों से
छीनकर यह तूलिका, 
रीतते अपने आदमी को
फलक दर फलक, हम   
बरबस भरा करते हैं

मेरी यह बेचैनी, दृश्य भरे  
इन फलकों की ठाँव में
बैठकर वहीँ से सोचती है   
आदमी खो गया इसका, और
फिर मुस्कुरा दिया करती है!
   

    -----------------विनय  

Sunday, September 20, 2015

चलनी से छनती यह आजादी...

खोजता है वह आज उसे
जिसे दिया था किसी ने
नाम आजादी!

चमकीली रपटीली सड़कों पर
बेतहाशा भागती यह आजादी
देख उसे ठिठकती नहीं,
न रूकती है यह आजादी
न जाने क्यों घबराई सी
भागती जा रही यह आजादी
वह बेचारा वहीं खड़ा-खड़ा
धूल फाँकता, इसे देखता
ओझल होती जा रही
प्यारी सी वह आजादी 

नहीं समझ पाता है वह     
आसमाँ में भी उड़ती जा रही
उसकी प्यारी सी वह आजादी  
पंखों पर इसके हो सवार वे
उसे उड़ते समझाए जा रहे हैं  
इशारों से चौंधियाया वह   
न जानें किस जमीं पर
बेबस, खोजता जा रहा है वह  
अपनी प्यारी सी आजादी !  

अरे कहाँ उड़ चली है
उसकी यह आजादी
कहाँ से खोज लाए जो
छिप गई हो यह आजादी
कहाँ झाँके कहाँ कहाँ ताके
न जाने किन भवनों में
छिपा दी गई है उसकी
वह प्यारी सी आजादी

रिरियाया और मिमियाया
तो कहीं कहीं छिटकी सी
मिल गई यह आजादी
जैसे किसी चलनी में
चाल दी गई है यह आजादी

नहीं तो. फहराते तिरंगे पर  
बैठी मुस्कुराती दिखा दी गई
यह ज़ालिम सी आजादी !

--------------------------विनय 

Sunday, August 9, 2015

मैं धराऊँ कपड़ा...

आलमारी में,
फैशन का मारा
तह किए गए कपड़ों में   
मैं भी रखा हुआ हूँ

हाँ, धराऊँ कपड़ा हूँ
कभी-कभार
उलट-पलट कर,
फिर से, मैं 
तहिया दिया जाता हूँ

आलमारी खोल
लोग मुझे भी
उड़ती नज़रों से देख
आँखों में ही जैसे
तौल लेते हैं,  

और गाहे बगाहे
अपनी खूबसूरती के लिए
मेरी नाप-जोख ले
अन्यमनस्क हो
मुझे फिर से, उसी
आलमारी में सजा
धर दिया करते हैं !

हाँ सोचता हूँ, 
मैं तहियाया 
बनता धराऊँ कपड़ा
फैशन का मारा
धीरे-धीरे कर  
आउटडेटेड हो रहा हूँ

यह नित बदलता फैशन
धीरे धीरे इसके नीचे
दबता हुआ मैं,
बेकाम सा,
आलमारी खुलने पर
एक अनजाने डर से    
चिहुँक उठता हूँ

खुलती आलमारी में
मेरी ओर बढ़ते ये हाथ
अपने हों या पराये
सभी तो एक जैसे,
और इनकी अँगुलियों में
फिसलता मैं,
बेरुखी से, फिर वैसे ही,
अकसर, धर दिया जाता हूँ

बंद आलमारी में
न जाने कौन सी
आस में, अँधेरे में,
बेजान सा, अपने
धराऊँपने का, आखिर मैं
कौन सा बोझ ढोता हूँ ?

या कि पहने जाने के लिए
मुझे भी अब कोई
कीमत चुकाना होगा !   
                                  ---विनय

Tuesday, July 21, 2015

शब्दों में नहीं ढल पाते हो !

प्रिय! तुम तो..
प्रियतम हो..
शब्दों में नहीं
ढल पाते हो !

यह नख-शिख भी
बने यदि भावभूमि
फिर भी
अकवि सा
क्यों रह जाता हूँ

झील सी
इन आँखों में
ले पतवार,
मगन हो,
क्यों नहीं तिर
पाता हूँ,

पर, मैं जानूँ,
है यह महासमर..!
शब्दों में गढ़
फटे पाल की सी
यह नौका, इसमें
कहाँ  तिर पाएगी?

धूमिल नख-शिख
घुल जाए यह
झील सी इन
आँखों मे,
मिलकर  इनसे ,
पिघला यह
मेरे अन्तस् में,

फिर, बन बूँद
दुलक, आ मिल
इन रुक्ष चट्टानों में ,
यह नख-शिख
बेमानी, जब
आँखों ने देखा
आँखों का पानी!

प्रिय ! हाँ
तुम केवल
प्रियतम हो !
शब्दों में नहीं
ढल पाते हो !
             ------विनय

Thursday, April 2, 2015

वह चहचहाहट..!

चिड़ियों की
चहचहाहटो को सुन
आँखें खुल गयी हैं
देखा, पत्नी द्वारा
सुबह-सुबह विखेरे गए
चावल के दानों को
वह प्यारी सी गौरैया
अपनी चोंच में ले
अपने प्यारे से बच्चे के
नन्हीं लाल कोमल सी
खुलती चोंच में रख
बेइन्तहा चुगाये जा रही है

अपने बच्चे के 
छोटे-छोटे परों के
फड़फड़ाहटों को देख 
शायद सोच रही है
जल्दी से जल्दी
इसके डैने भी इसे
उड़ने की ताकत दे दें
परवाज भर सके
यह भी इस उन्मुक्त
आकाश मे !

देख इन्हें, सोचता जा रहा
इस डाली से उस डाली पर  
फुदकने के लिए ही तो
प्यारी सी वह नन्हीं गौरैया
अपने बच्चे को
दाने चुगाती जा रही है

हाँ, इनकी चहचहाहटों में
किसी ‘ऑनर किलिंग’ जैसा
कोई स्वर नहीं उभरा था !
                     
                    -विनय