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Saturday, September 22, 2012

बाबू के वे चेहरे















मैं नंग-धडंग,
हँसता हुआ, बाबू के सामने
आकर खड़ा हुआ, और,
बाबू का, मुझे घूरता
वह चेहरा, बरबस,
याद आ जाता है,

बचपन में,
उसी घूरते चेहरे से,
सहम, मैंने अपने को
ढक लिया था !
बाबू की, अनकही,
उन घूरती आँखों ने, जैसे
बहुत कुछ कह दिया था,

धीरे-धीरे, मेरे अन्तस् में,
ऐसे ही, बचपन में देखे 
बाबू के चेहरे से,
न जाने, कितने
चेहरे उग आए थे,

वे उगे हुए चेहरे,
बाबू जैसा ही, मुझको
अकसर घूरा करते थे,
हाँ, मुझ अनगढ़ को,
हरदम गढ़ते रहते थे |

      

एक दिन सहसा,
दिखा, वह हाईवे !
दौड़ना चाहा था उस पर,
बाबू का, अब वही
घूरता चेहरा, झुर्रियों भरा,
कृशकाय सा, दिखाई
दिया था !

आकस्मात ! 
बाबू के उस चेहरे से 
मुँह मोड़, मैं 
हाईवे को, पकड़ने 
चल पड़ा था,

और तो और,
मेरे अन्तस् में, उगे
उस जैसे, वे तमाम चेहरे
मुझे, भयाक्रांत कर रहे थे |
धीरे-धीरे, वे चेहरे, फिर 
मुरझाने लगे थे,

लेकिन, मैं दौड़ता, बेखबर,
उस पथ पर,
उपेक्छित वे सारे चेहरे,
एक-एक कर, सूख
गए थे सब !

        

हाईवे का गंतव्य कहाँ,
तनिक सोच, निहारा,
अरे ! यह पथ !
किनारों पर इसके सांय-सांय,
और यह वियावान !
देख इसे, सहसा, मैं
ठिठक पड़ा, लगा देखने
अन्तस् के खालीपन को,
कहाँ छूट गए, मुझे घूरते
वे चेहरे, ओझल से क्यों
बाबू के वे सब चेहरे,

शायद, सब सूख गए !
अब तो, मैं, अन्तस् के,
उन घूरते चेहरों के बिन
निपट अकेला, अनगढ़,
बेशर्म खड़ा, केवल
हाँफ रहा !
              --विनय 

Monday, September 17, 2012

अनाथ शिशु

अब तक था अकेला ,अलमस्त हो चलता रहा .
फूल के साथ ही ,कंटक भी चुनता रहा .
आदर्श की बुनियाद पर ,सपनों का घर सजाता रहा ,
अलौकिक था वही,गीता को भी गुनता रहा ,
नहीं चाहा था कभी भीड़ का हिस्सा बनूँ ,
किसी पगडण्डी पर बस, अपनी राह चलता रहूँ ,
देंह के सच में उलझ ,प्रतिमान सारा ढह गया ,
असहाय ' गीता ' मैं भी ,भीड़ का हिस्सा बना .
गोंद में जिसके पला ,स्नेह छाया में जिसके बढ़ा,
वह 'अपाहिज ' आज देखो ,उपेच्छा से बढ़ चला .
सोचने की फुर्सत नहीं ,दर्द के अहसास पर
स्वार्थ का पुतला बना ,नाचता हूँ डोर पर .
सहेज कर रखा था जिन्हें ,बचपन में चाव से ,
अपलक निहारता उन्हें ,खोटे सभी वे हो गए .
भीड़ का प्रतिमान क्या ,जिसका मैं हिस्सा बना ,
सम्मोहित इसके जाल में ,मैं भी बाजारू बना .
यौवन के अहसास में ,जो उत्तेजना मिली कभी ,
आग थी कभी वही, अब बुझ सी क्योँ रही ,
दंश सा सब लग रहा , सिस्टम के इस संजाल में ,
अनाथ शिशु सा सो गया ,भीड़ के सम्मोह में .

Saturday, September 15, 2012

दंभ


मैं रूप में व्यस्त हूँ

आकार से त्रस्त हूँ

अभेद विश्व में

भेद से ग्रस्त हूँ

 

असीम की चाह है

पर सीमा में बंद हूँ

अरूप की चाह में

स्वरुप में अभ्यस्त हूँ

 

रूप के श्रृंगार में

छिपा रहा अरूप को

दीप का प्रकाश, मैं

दिखा रहा सूर्य को

 

प्रकाश का पुंज मैं

प्रसार का बोध है

पर, बंद हूँ स्व में

पर का नहीं शोध है

 

देख कर इसी को

मग्न हूँ स्वभाव में

भूल कर सिन्धु को

खो रहा बिंदु में

 

इस अशेष विश्व में

खोज रहा शेष को

अज्ञान के भाव में

खो रहा ज्ञान को

 

जिस स्वरूप का प्रसार

है दिग दिगंत में,

उस अनंत गगन को

समेटता छितिज में

 

सीमा के भाव में

छिपा सभी द्वंद्व है

असीम के आभाव में

शूल बना दंभ है