मैं अपनी कविता की
भाषा समझना चाहता
हूँ
कि कितनी गहराई
से
उतर कर यह मुझे
समझाने आई है।
इसे मैं जानता
हूँ कि
यह केवल मेरी
कविता
जो मेरे द्वारा
और
मेरे लिए ही
लिखी जाती है
यह मेरी कविता
जैसे कि कोई
लोकतंत्र
किसी की परिभाषा
में ढल
जनकल्याण कर जाती
है।
यह मेरी कविता
मेरे अन्तर्मन की
भाषा
ठीक उसी तरह,
जैसे
अपने घर के सामने
दरवाजे पर गोबर
से!
लीपती कोई औरत
वहाँ अपने मन के
अमूर्त चित्र
उकेरती।
यह मेरी कविता
जैसे किसी सामन्त
से
दिए संस्कारों की
तरह,
गौरवबोध की छाप
बन
मेरे भी दरवाजे
पर
फूट पड़ती है।
यह मेरी कविता
उस बेचारी औरत की
तरह
जिसे जिम्मा दिया
गया है
केवल और केवल
दरवाजे की
खूबसूरती को
बनाए रखने की!
और, मेरी यह कविता
उस औरत की तरह
घर के अन्दर से
अनजान
खटिया पर चीथड़े
दसने और
गरीबी सी उस
दुर्गन्ध से,
और बुझे हुए
चूल्हे की
ठंडी पड़ी आग से
हाँ यह मेरी
कविता
ठीक उसी तरह
अपने अन्दर के उन
चीथड़ों से अनजान
दूसरों के लिए
दरवाजे पर
गोबर के अमूर्त
छाप बन
छप जाते हैं,
यह मेरी कविता
देख अह्लादित,
इसे
मैं भी नहीं
समझता!
केवल और केवल
अमूर्त गढ़ता!!
-विनय
(महोबा)