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Thursday, July 24, 2014

सलवटें मेरे चादर की..!


मैं हैरान सा हूँ..
चादर की सलवटों से
मेरे बैठने से
आड़ी तिरछी तमाम
सलवटें पड़ जाती हैं
मेरे इस चादर में..!

परेशानी का सबब ये  
बे हिसाब सलवटें
क्योंकि-
मेरे इस चादर की सलवटों से
झाँकते हैं तमाम अँधेरे !

हाँ इन सलवटों की
तमाम गहराइयों में
छिपे बैठे हैं ये अँधेरे..!

बेचैन सा
बार-बार खींच कर
फैलाता मैं चादर
पर बेबस...
वैसी की वैसी ही
फिर से दिखाई दे जाती
सलवटें मेरे चादर की..!
---------------------------विनय

Sunday, July 6, 2014

रेलिंग

एक पगडंडी, जंगल से
गुजर जाती है;
इसके धूल में सना पैर,
अपनापन तलाशता है

एक नदी, झील सी
गहरी घाटी में गिर
झर झर निर्झर बन
धुंध उड़ा बह जाती है!

भीगने को आतुर मन
पर, दूर बहुत ऊपर,
उतरना अवश, और डर
कहीं डूब न जाऊं
और तो और वह रेलिंग
हमसे ही निर्मित, हमारी
सुरक्षा की सीमा, जो
रोकती है, डराती है,
दूर से, केवल दिखाती है

हाँ ! शायद एक दिन
पानी सूखने पर
उतरूंगा, लेकिन फिर वही डर
कहीं से, कोई बंध टूट पड़ा,
डूब जाऊंगा, पर वाह!
ऐसा कहाँ बंध
इस रेतीलेपन पर
क्या बचा है कोई श्रोत!

लेकिन, नदी में
यह जल कहाँ से, रास्ता भूल
कैसे आई जंगल से !
याद आ गया, वह
अनादिकाल का रिश्ता,
जिसे भूल, भूल गया है
अह्लाद, अब अपरिचित
अजनबीपन का रिश्ता
समझा रहा यह रेलिंग

तभी तो, इस ओर से,
इन्हें निहारता, हो विस्मित
सोच रहा, किससे है
किसको खतरा
क्या है रेलिंग का पाठ

फिर याद आ गया-
आदमी अब आदमीं कहाँ
भूल गया है सारा आदमीयत
रोटी कपड़ा और मकान में

जंगलों में जब था, तो
आदमी लगा करता था
बस्तियों में अब आकर
वही जानवर बना फिरता है