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Tuesday, December 30, 2014

लमहा दर लमहा सीढ़ी बन जाए...

कतरा कतरा रिसता जाता
लमहा दर लमहा जीवन से,
नया पुराना क्या हो, यह
उलझन बन छाया मन में !

इन लमहों की है एक कहानी
गाथा बन जाए जो जीवन की
ठुकराते ठुकराते हम यूँ बढ़ जाते
हिसाब नहीं इनका दैनंदिन में !

लमहों में जीने की चाह नहीं
वर्षों की बात किया बेमानी है
समय प्रवाह को माना जीवन
पन्ने सादे रह गए दैनंदिन में !

दर्द न कोई तुमको पहुँचे, यह
पुरातन, खोएगा क्या नूतन में ?
शुभकामनाओं का खेल निराला
छिपा तारीखों की उलझन में !

तारीखें दर तारीखें बदलें, पर
रवायत यह, दर्ज रहे हर पन्नें में
लमहा दर लमहा सीढ़ी बन जाए  
चढ़ते जाएँ हम सब जीवन में !

-----------------------------------विनय

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