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Sunday, August 9, 2015

मैं धराऊँ कपड़ा...

आलमारी में,
फैशन का मारा
तह किए गए कपड़ों में   
मैं भी रखा हुआ हूँ

हाँ, धराऊँ कपड़ा हूँ
कभी-कभार
उलट-पलट कर,
फिर से, मैं 
तहिया दिया जाता हूँ

आलमारी खोल
लोग मुझे भी
उड़ती नज़रों से देख
आँखों में ही जैसे
तौल लेते हैं,  

और गाहे बगाहे
अपनी खूबसूरती के लिए
मेरी नाप-जोख ले
अन्यमनस्क हो
मुझे फिर से, उसी
आलमारी में सजा
धर दिया करते हैं !

हाँ सोचता हूँ, 
मैं तहियाया 
बनता धराऊँ कपड़ा
फैशन का मारा
धीरे-धीरे कर  
आउटडेटेड हो रहा हूँ

यह नित बदलता फैशन
धीरे धीरे इसके नीचे
दबता हुआ मैं,
बेकाम सा,
आलमारी खुलने पर
एक अनजाने डर से    
चिहुँक उठता हूँ

खुलती आलमारी में
मेरी ओर बढ़ते ये हाथ
अपने हों या पराये
सभी तो एक जैसे,
और इनकी अँगुलियों में
फिसलता मैं,
बेरुखी से, फिर वैसे ही,
अकसर, धर दिया जाता हूँ

बंद आलमारी में
न जाने कौन सी
आस में, अँधेरे में,
बेजान सा, अपने
धराऊँपने का, आखिर मैं
कौन सा बोझ ढोता हूँ ?

या कि पहने जाने के लिए
मुझे भी अब कोई
कीमत चुकाना होगा !   
                                  ---विनय

2 comments:

Kailash Sharma said...

गुज़रते वक़्त के साथ कितना सब कुछ बदल जाता है...बहुत सुन्दर विम्ब...दिल को छूती बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...

विनय कुमार तिवारी said...

आपका आभार....