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Tuesday, November 26, 2013

क्यों कर लबादा बुनने चला था..?

भरे बाजार में, मैं ले कलम
लबादे बुना करता हूँ
स्वयं ओढ़ा और ओढ़ाया
फिर ताली बजाया करता हूँ

पर सहम, अपने प्यारे बच्चे की,
छुटपन में कही उन बातों को
मैं, याद किया करता हूँ,

किसी ने देख उसे नंगा
हंसते हुए उसकी ओर, जब,
किया था इशारा, चिढ़कर
मुझसे पूँछा था उसने-
“मुझ पर क्यों हँस रहे हैं”

“तुम नंगे हो चिढ़ा रहे हैं”
सुन मेरा यह उत्तर
मासूमियत से इन शब्दों में
अकस्मात, वह बोल उठा था,
‘मुझ पर यह क्यों हँसते हैं
‘अन्दर से तो सब नंगे हैं’

आज सोचता हूँ, मासूम से
इन शब्दों का अर्थ मैं
क्यों नहीं समझ सका था
एक हम्माम में ही अब तक 
क्यों खोया हुआ था,
इंसान हूँ, इंसानियत है,
फिर, क्यों कर
लबादा बुन रहा था?  

Sunday, September 22, 2013

वेदना ! तू गीत क्यों बन जाती हो

वेदना  ! तुझसे पीड़ित कौन यहाँ
क्यों तू उमड़ पड़ी हो,
प्रथम कवि की कविता सी
क्यों अंतर्तम से निकल पड़ी हो,
क्या यह आश्रय के योग्य नहीं
क्यों तू कविता सी बह निकली हो,
आखिर छिपा वह कौन रहस्य
गीतों में फिर क्यों सजती हो,
किस सागर में मिलने की चाह तुझे
क्यों अंतर्तम से छलकी हो,
इस रूखे-सूखे से मौसम में
सागर में मिलने क्यों जाती हो,
व्यापार की किस अभिलाषा में
वेदना ! गीत क्यों बन जाती हो !
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Thursday, August 8, 2013

एल ओ सी

मैं एक राष्ट्रवादी हूँ,
मेरा यह बेचारा राष्ट्रवाद
एक एल ओ सी का मोहताज है|
तभी तो, एल ओ सी के पार
देख पड़ोसी, उन्मादित हो जाता है|
कुरुक्षेत्र के रण में,
गीता के ज्ञान जैसा यह
अकसर प्रकट हो जाता है|
कितना प्रिय! यह एल ओ सी,
तभी तो, हमने इसके
तमाम घेरे बना लिए हैं|
कैद कर अपनों को ही
अपनी-अपनी इस एल ओ सी में
गौरवान्वित, इसे क्रास नहीं करते हैं|
और यहाँ पहुँच, वह
बेचारा हमारा राष्ट्रवाद
अकसर सो जाता है|
एल ओ सी के पार का पड़ोसी
निगहबान सैनिकों को मार 
शहीदी-शव हमें सौंप जाता है। 
अपनी-अपनी एल ओ सी में सोया
एक युद्ध का मोहताज 
हमारा वह राष्ट्रवाद !
उसे गाहे-बगाहे जगा जाता है|


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Sunday, July 14, 2013

विरथी

किनसे कहूँ, मैं मन की बातें,
मुख्तलिफ यहाँ का मंजर है|
ले रथ का टूटा पहिया, जैसे
रथियों में विरथी अभिमन्यू है|

चक्रव्यूह के इन द्वारों का,
रहस्य अगम, अगोचर है|
मतलब क्या उन सीखों का,
हाथों में केवल टूटा पहिया है|

कुरुक्षेत्र का यह रण कैसा,
शामिल जिसमें सब अपने हैं,
रिसता रिश्ता ले घावों का,
लड़ता एक अकेला अभिमन्यू है|

रथियों के रथ से पूंछो,
उनका रथ भी हमसे है,
उन बातों को कैसे समझे
विरथी क्यों यह अभिमन्यू है|

रहस्य नहीं इसमें कोई 
स्वांग यह रचा गया है,
हार नहीं टूटे पहिये का
रथियों का नहीं निशा है

किसने देखा, ऊँचे बुर्जों को
चौसर जिसमें खेला जाता है|
विरथी कोई अभिमन्यू हो,
पासा ऐसा फेंका जाता है|

पासों का यह खेल पुराना
अब तक चलता जाता है,
अधिकारों का द्वंद्व निराला
उल्टी चालों में छिप जाता है

दृढ प्रतिज्ञ यदि हो जाओ 
डूबा सूरज उग आता है,
अपनी-अपनी आहुतियों से   
यह मंजर भी बदला जाता है|

----------------------------------------------------- विनय

Saturday, May 11, 2013

इस छोटी सी धरती में!

[गूगल से चित्र]
नीम की डाली पर बैठे
कौओं की काँव - काँव,
भागती गिलहरियों की
चुट - चुट और खूंटे से 
बंधी रँभाती गायें।

हर-हर पीपल की छाँव में,
काका खड़े, चरखी नचाते,
सुतली की डोरी बनाते।
चारपाई पर बाबा बैठ 
दादा को देखते,वह
बंसुली ले पेरुआ गढ़ते।

छोटू बैठा पास में
दूध के दांतों से 
रोटी चबाता, उसे 
ताके, प्यारा  वह 
दुम  हिलाते।

अकस्मात, सुन चुट-चुट 
नीम के पेड़ से, 
उतरती गिलहरी देख, 
दौड़ा, झपटा उसकी ओर 
बाबा की आवाज 
दुर-दुर, सुन वह 
वापस लौटा धीरे -धीरे! 
बैठ छोटू का 
फिर मुँह ताके ,
छोटू ने फेंका रोटी का टुकड़ा, 
वह झपटा दुम हिलाते।

दूर आसमान में 
बादल छाते घने-काले 
बरसने को हो आए से 
निकलती काकी दरवाजे से, 
रँभाती गाए देख उन्हें,
खली डालती हौदे में
सानी में मुँह बोर
उड़ाती मखियाँ पूंछ हिलाते।

खोए सब अपने में 
थिर-थिर, मंथर-मंथर
हलचल में, अनंत में,
इस छोटी सी धरती में! 
  
------------------------------------विनय

  

Saturday, February 9, 2013

ये बुलबुले


टप....टप ...टप ...!
छप्पर की ओरी से
पानी की गिरती वे बूंदें,
उनसे बनते ये बुलबुले
बचपन में देखा करता
हाँ , वारिश के दिनों में
अकसर ऐसा होता
बूंदों से बने कटानों  में,
बुलबुलों का वह बहना,
विस्मित, उन्हें निहारा करता|
उनका रंग, सतरंगी रंगों का 
मन को प्यारा लगता
न जाने क्यों उनसे
एक नाता बनता,
हाँ , वही बूंदें,
बुलबुले बना अपनी धारा में,
उन्हें ,बहा ले जाती !
ये बुलबुले ! 
एक के पीछे एक बुलबुले !!
पीछा करते एक दूसरे  का ,
धारा में बहते जाते|
विजयी होता, वही बुलबुला
अधिक देर तक अस्तित्व बना,
दूर तक जो बह जाता।
देखा लिया था,
उनकी प्रतियोगिता....!
कोई बुलबुला दूसरे से मिल ,
समेट उसका आकार ,
अपने को बड़ा बना लेता ,
तो कोई कंकड़ से टकरा,
अस्तित्व खो देता ,
और फिर वह फूटा
पानी में मिल जाता।
कोई  दूर जाता 
आँखों से ओझल होता
आखिर में वह भी मिटता,
धारा में खोता।
ताली बजा कर प्रतियोगिता का,
समापन मैं करता..!
आज सोचता हूँ, 
क्या खूब रही !
मैंने तो बचपन में ही...,
देख लिया था...,
बुलबुलों की प्रतियोगिता!!

Friday, February 8, 2013

प्रेम की राह


प्रेम की राह में , मैं बढ़ता गया हूँ
देख तुम्ही को , तुम्ही में ढलता गया हूँ,

तेरे प्रेम में जो अश्क गिरते रहे हैं
पीकर ह्रदय में उन्हें छिपाता रहा हूँ|

ज़माना भी पुकारेगा मुझको तुम्ही सा
तुम्हारे रूप से जब मेरा रूप होगा

देखना प्रेम का यह रूप यूँ ही न होगा
सभी रूप इससे अभिभूत होगा|

दग्ध ह्रदय की ज्वाला भी होगी
सभी पर इसकी खुमारी भी होगी

बजेंगे तार तब, सब इस राग में
गूंजेगा यही तब, सभी में रोर बन के|

मिटेंगे भेद तब सारे जहाँ के
प्यारे सभी होंगे प्यारे सभी के|

Saturday, February 2, 2013

संचित निधि


अज्ञान के निविड़ अंधकार में
भटकता हुआ, मैं अकेला
उन्मुक्त, विचरण कर रहा
आकांक्षा ले आकार
जाज्ज्वल्यमान जीवन का,
इसे अभीष्ट बना,
विस्मृत कर-
पुनः मर्त्यता को, और
विजिगिषा हेतु,
धीरे-धीरे क्षीण हो रहा!
कौन तोड़ेगा यह विभ्रम
अस्तित्वहीन, अननंतर,
खो जाएगा, यह
साध्य सकल!
किन्तु हेतु क्या हो,
बनी रहे जो
चिर अभिलाषा
यह क्या...! प्रतिध्वनि..!
है केवल वह-
मानवपन
सदाकार, अमर्त्य
एक संचित निधि!