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Monday, September 26, 2016

मौन हूँ, होठ भिंचे हुए हैं

मौन हूँ, होठ भिंचे हुए हैं!

सीमा के प्रहरी एक छद्म युद्ध में

फिर से शहीद हुए हैं। 

हमारे लोकतंत्र में ये सैनिक 

राजनीति नहीं करते, और

शायद इसीलिए ये प्रहरी 

राजनीति के शिकार हुआ करते हैं।

क्योंकि, किसी देश के लोकतंत्र में 

बुनियादी हो चुके उसूलों में, अब 

राजनीति न करने वाले ही

राजनीति के शिकार हुआ करते हैं।

शायद, ये देश

राजनीति से ही बनते हैं, और 

राजनीति की सीमाएं हुआ करती हैं, 

तभी तो ये देश भी, अपनी अपनी 

सीमाओं में कैद अपनी अपनी

राजनीति किया करते हैं। 

फिर, सीमाओं के प्रहरी 

राजनीति की टकराहटों में 

अकसर शहीद हुआ करते हैं। 

जैसे, कई वर्ष पहले का वह चित्र 

आँखों के सामने अकसर घूम जाता है। 

हाँ, उस दिन एक जनांदोलन जब 

एक नेता के कब्जे में आ गया था। 

छत की बालकनी से वही नेता 

चाय की चुस्कियों के बीच, अपना 

मुस्कुराता हुआ चेहरा लिए 

दिखाई पड़ गए थे, और 

हम किसी सीमा के प्रहरी बन 

उन्हें ढूँढ़ते, नीचे से

उनकी राजनीति बचाए खड़े थे। 

हाँ, ऐसे ही जन को अकेला छोड़

यह मुआ तंत्र, मुस्कुराया करता है।

हाँ,  इन शहादतों पर ये बेबस से 

आँसू निकल आए हैं, लेकिन 

न जाने क्यों, युद्ध की ललकार सुन 

फिर फिर, यह मन सिहर जाता है। 

हाँ, जानता हूँ 

इस या उस राजनीति के सैनिक 

आपस में दुश्मन नहीं हुआ करते हैं। 

लेकिन अकसर आपस में, 

वही लड़ा करते हैं। 

युद्ध की हुंकारों को सुन 

हम काँप जाते हैं। 

राजनीति की टकराहटों से 

हम भयाक्रांत हो जाते हैं। 

सैनिकों की शहीदी में, 

अकसर कुछ बेबस से चेहरे 

सामने आ जाते हैं। 

एकाएक हम 

यह सोच, फिर मौन हो जाते हैं 

यदि यह राजनीति न होती तो 

ये देश न होते, फिर 

ये युद्ध न हुआ करते, लेकिन,

युद्ध से क्या यह, 

राजनीति खतम हुआ करती है? 

मुझे तो लगता है 

ये हुंकार भी, सच नहीं हुआ करते हैं,

उस नेता की तरह, जो 

बालकनी से तमाशा देखा करते हैं। 

बेशक, युद्ध कर लो 

पर इससे क्या राजनीति के खाँचे 

मिटा करते हैं?

वह जिन्दा रहती है, हमारे

राजनीतिक लोकतंत्र में, जहाँ हम 

अपनी तमाम विद्रूपताओं के साथ 

फिर फिर इसकी सड़ांधों में ही

बेखौफ, राजनीति किया करते हैं। 

जैसे कि, टी वी के वे ऐंकर आपस में

एक-दूसरे को देख मुस्कुराते हुए 

सत्रह सैनिकों की शहीदी की 

खबर सुनाते हैं। 
      
                      --Vinay (विनय)

Saturday, September 17, 2016

कविता का विघटन

सोचता हूँ, और जैसा कि, मैं 
अकसर कभी-कभी सोच लेता हूँ.. 
बहुत दिन हुए कोई कविता लिखे 
क्यों न आज कोई कविता लिख दूँ।

मेरा लरजता कवित्व-भाव बेसब्री में,
उस अँधेरे, कबाड़खाने का
दरवाजा खटखटाता है, जिसमें
बेतरतीब सी निष्प्रयोज्य चीजें
आपस में बतियाते हुए, अपनी उपेक्षा में
आड़े, तिरछे, औंधे, उतान, रूठे हुए 
बिम्ब की प्रतीक्षा में कंडम से पड़े हैं । 

भड़भड़ती आवाजों से सजग, वे 
अपनी उस बेतरतीबी में ही, जैसे 
मेरे कवित्व-भाव को दुत्कारने लगे हैं। 
मनुहार पर, किसी रूठे नेता की तरह 
चढ़ती उतरती कीमतों को देखकर 
कह, अब, मँहगाई "दाल" नहीं, फिर 
अपने नए बिम्ब का पता पूँछते हैं। 

कबाड़खाने के दरवाजे पर ही खड़ा 
मेरा कवित्व-भाव, पैंतरेबाजी देखता है 
राजनीतिक दल में किसी नेता को 
बिना हील-हुज्जत सिंहासन जरूरी है 
तो कविता में भी, भावों की प्रतिष्ठा में 
नए नए बिम्ब तलाशना जरूरी है। 

मेरा कवित्व-भाव बेचैन बिम्बाभाव में 
तमाम भावों की उठापटक में, और 
भावों की बिम्बलोलुपता देख, उन्हें 
निष्प्रयोज्य मान, अपनी कविता को 
विवश, विघटित होते देखता रहता हैं।
                                                --विनय

Thursday, August 18, 2016

बे-तुक की कविता!

मैंने तो देखा है, और 
शायद आप ने भी देखा हो 
अकसर हम अपने घर के सामने के 
घने हरियाले पत्तियों वाले पेड़ों को, 
घर की खूबसूरती दिखाने के लिए 
बेदर्दी से कटवा दिया करते हैं।

लेकिन लोग-बाग, इन पेड़ों के प्रति 
थोड़ी सी सहृदयता भी दिखा देते हैं 
जैसे कि इन पेड़ों को बौना बनाकर 
अपने गमलों में सजा लिया करते हैं।

और, गमले की थोड़ी सी मिट्टी में 
बेदर्दी की काँट-छाँट सह कर 
ये पेड़, अपने विवश-बौनेपन से 
हमारी हवेली की भव्यता में 
आखिर, चार-चाँद लगा देते है।

जमीन से ऊपर उठ चुके हम लोग 
अपनी भव्यता के कायल हैं, 
तभी तो, पनपने वाले पौधों में 
अपनी भव्यता की आड़ समझ 
बौनेपन का रोग लगा देते हैं।

हाँ, अब हम मिट्टी-पानी के भय से 
अपने चारों ओर की जमीन को 
बेतरह बेहिसाब और पुख्ता, और 
पक्का कर लिया करते हैं 
जैसे कि हम, अकवि होने के डर से 
कविता कविता लिख वाहेच्छा में 
एक पक्का कवि बन लिया करते हैं।

फिर देखिए, भव्यता के हम अनुयायी 
जमीन और मिट्टी से ही उठे हुए लोग 
मिट्टी से जुड़े हर उस पौध को 
अपनी बनाई पक्की जमीन पर, बेजान 
खरपतवार समझ लिया करते है।
फिर, इनके उगने या फैलने के 
विकल्पों को सीमित कर इन पर 
पाबंदी लगा दिया करते हैं। 
यदि बहुत ज्यादा हुआ तो इन्हें 
लान के बाड़े में थोड़ी सी मिट्टी दे 
शोभाकारक समझ भव्यता की तरह 
अपने लिए ही उगा लिया करते हैं।

हाँ, न जाने क्यों, अकसर 
हम अपनी भव्यताओं को भी 
जमीन से ऊपर उठा समझ लेते हैं 
तभी तो, वह तिरंगा भी किसी 
ऊँचे बुर्ज पर लहराया जाता है।

शायद, यह भी इन्हीं ऊँचाइयों से 
हमारी निचाइयों को परखता है 
जैसे कि कवि होने के गुमान में 
मैं अकवि, मेहनत कर 
बे-तुक की कविता करने की 
टुच्चई किया करता हूँ।
                               -विनय

Saturday, July 23, 2016

मैं डरपोक हूँ, शायद इसीलिए कवि हूँ।

मैं डरपोक हूँ, शायद
इसीलिए कवि हूँ।
बादल की गड़गड़ाहटों से
डरे सहमें एक बच्चे की तरह
मैं भी भावनाओं की 
इस अँधेरी कोठरी में दुबक
अंतस् में ही बरस, स्वयं को
बहा ले जाता हूँ।
अँधेरी कोठरी की
खिड़कियों से झिरता
बाहर का उजास देख,
रीते धार को छोड़, यहाँ से
निकल भागता हूँ।
बाहर रोशनी से नहाई
चमकती हरी पत्तियों को देख
इनके झुरमुटों के बीच पसरे
अँधेरों में, डर तलाश कर,
फिर से अंतस् में छिप,
कविता रचा करता हूँ।
आखिर में, अंतस् में ही बरस
धीरे-धीरे सूखकर
निडरता की रेतीली धार ले
दुनियाँ में खो जाता हूँ।
अब न मैं हूँ, न उजाले में
धूप में चमकती हरी पत्तियाँ हैं
और न इसमें छिपा कोई अँधेरा है,
अपने अंतस् के इस रीतेपन के साथ
एक अदद डर तलाशता , दर दर
कविता के लिए भटकता हूँ।
और एक अदद डर
मेरी कविता की अर्थवत्ता है।
यह गजब का मनोरंजन है, क्योंकि
मैं डरपोक हूँ, शायद
इसीलिए कवि हूँ।
---------विनय
किसी की शाम-ए-उदास हुआ करती हैं, 
और मैं तो उदास-ए-सुबह से गुजरता हूँ। 

वो अकसर कहा करते हैं, यहाँ नस्लें उदास हुआ करती हैं, 
मैंने तो देखा है, यहाँ उदासियाँ अपनी नस्लें लिए फिरती हैं।

जनता का राज है, संविधान है और कानून का डंडा है, 
फिर भी हमारे देश में ये गुंडे और माफिया क्यों जिंदा हैं।

गर न बदल सके दिमाग आपका, तो हम खंजर लिए घूमते हैं। 
अपना बनाने का जुनूँ इतना, सर ही कलम कर दिया करते हैं।।

यह भी बहुत अजीब है कि, बरसने के लिए मौसम चाहिए। 

जैसे सब अपना सा..!

धूप-छाँव सी जिन्दगी में 
मैं अपलक निहारता हूँ
अपने छोटे से बगीचे को 
जिसकी नम जमीं पर बैठी
चिलचिलाती धूप से बचती
नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों को
और तो और यहीं पर
इन सब के बीच में ही
आगे पीछे पैरों को फैलाए
पेट के बल आराम फरमाती
उस गिलहरी को..
देख इन्हें मेरे अन्दर भी जैसे
कोई बाग लहलहाने लगा हो
और इस धरती-पट के चित्र में
मेरे शरीर की सीमा रेखाएं
मिटती जा रही हों, अब
मैं धरती और आकाश में
सीमा विहीन फैला हुआ सा
जैसे सब अपना सा..!!
               -विनय

Tuesday, April 26, 2016

शायद आंधी आ रही है..

फैला हुआ वह मैदान
उसमें खड़ा वह एक अकेला पेड़
तपती दुपहरी में
उसके नीचे वे तीन-चार श्रमिक
जम्हुआइ से ले रहे
पास में ही अधकटा गेहूँ का खेत
सुनहली बालियों से अटा पड़ा
कोई बताए सरकार ने
गेहूँ बोये हैं या कि खेत काटे हैं
शायद वह सरकार है
जो इनमें से कुछ भी नहीं किया
हाँ, वे खेत के मजूर उठ बैठे
अपने-अपने हंसिये ले
खेत की ओर फिर चल पड़े
पेड़ की घनी छाया का सूनापन
कहीं से कोई कुत्त आकर
उसके नीचे बैठ जम्हुआने लगा है
फिर आये कुछ लोग
अपनी कुल्हाड़ियों के साथ
कुत्ते को दुरदुराया और
पेड़ की जड़ों पर कुल्हाड़ी
चलाने लगे हैं
खेत में गेहूँ काटते मजूर
उचक कर उसे देखने लगे हैं
कुत्ता दूर खड़ा मजूरों के
फेंके गए खाने की थैलियों को
अब चाटने लगा है
वहीँ दूर आकाश में
धूल का गुबार दिखाई दे रहा है

शायद आँधी आ रही है!
          ---------विनय

मैं इंसान बनने का/ काढ़ा पिए हूँ..!

हाँ, भाई मैं इंसान हूँ, लेकिन
इसका मतलब यह तो नहीं
कि मैं इंसान नहीं हूँ !

आप समझते हैं..?
मुझमें इंसान होने की -
सारी खूबियाँ हैं!
देखिए न कि -
मैं कितना योग्य हूँ !
मुझमें थोड़ी-थोड़ी सी
सब चीजें मिली है, यानी कि
जैसे मैं इंसान बनने का
काढ़ा पिए हूँ..!

चौंकिए नहीं,
मैं इसलिए इंसान हूँ कि-
मैं कवि नहीं हूँ,
लेखक नहीं हूँ,
चितेरा नहीं हूँ,
यह सब बनूंगा तो-
फिर इंसान कहाँ बनुंगा ?

मेरे अन्दर की वासनाएँ-
मुझे कवि बनाती है !
मेरे अन्दर की सारी बुराइयाँ-
मुझे लेखक बना देती है !
और जब मैं चितेरा बनता हूँ, तो-
लफ्फाज बन जाता हूँ !
बनकर यह सब शायद कि-
काढ़े का असर निकालता हूँ..

अब आप कहेंगे कि
इसके अन्दर की
इंसानियत मर गयी है!
और यह झूँठ बोलता है !

सच भाई मेरे,
इंसान कहाँ मरा करता है?
मेरे हिसाब से तो,
इंसानियत मरती है और
इंसान जिए जाता है, काहे कि
यह तो सच और झूँठ का
काढ़ा पिए रहता है, जो
बड़े हिम्मत का काम है

रोते, हँसते, गाते, चिचियाते
केवल यही जिए जाता है,  
इंसान से इतर हो जाने की
इंसानियत भी सहे जाता है,

कभी-कभी यहीं धरती पर
यह काढ़ा भी मिल जाता है
पीकर इसे वही इंसान फिर से
पुनर्स्थापित हो जाता है|
और इंसान बने रहने का
इंसानियत से ज्यादे  
सुख लूटता है, क्योंकि
इसी पर तो आप सब का
इंसानियत भी लोटता है!

      --------विनय

Monday, January 18, 2016

यह मेरी कविता


मैं अपनी कविता की 
भाषा समझना चाहता हूँ
कि कितनी गहराई से
उतर कर यह मुझे
समझाने आई है।

इसे मैं जानता हूँ कि
यह केवल मेरी कविता
जो मेरे द्वारा और
मेरे लिए ही
लिखी जाती है

यह मेरी कविता
जैसे कि कोई लोकतंत्र
किसी की परिभाषा में ढल
जनकल्याण कर जाती है।

यह मेरी कविता
मेरे अन्तर्मन की भाषा
ठीक उसी तरह, जैसे
अपने घर के सामने
दरवाजे पर गोबर से!
लीपती कोई औरत
वहाँ अपने मन के
अमूर्त चित्र उकेरती।

यह मेरी कविता
जैसे किसी सामन्त से
दिए संस्कारों की तरह,
गौरवबोध की छाप बन
मेरे भी दरवाजे पर
फूट पड़ती है।

यह मेरी कविता
उस बेचारी औरत की तरह
जिसे जिम्मा दिया गया है
केवल और केवल
दरवाजे की खूबसूरती को
बनाए रखने की!

और, मेरी यह कविता
उस औरत की तरह
घर के अन्दर से अनजान
खटिया पर चीथड़े दसने और
गरीबी सी उस दुर्गन्ध से,
और बुझे हुए चूल्हे की
ठंडी पड़ी आग से

हाँ यह मेरी कविता
ठीक उसी तरह
अपने अन्दर के उन
चीथड़ों से अनजान
दूसरों के लिए दरवाजे पर
गोबर के अमूर्त छाप बन
छप जाते हैं,

यह मेरी कविता
देख अह्लादित, इसे
मैं भी नहीं समझता!
केवल और केवल
अमूर्त गढ़ता!!
                -विनय

                 (महोबा)