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Monday, January 27, 2014

कारण क्या...?


उमड़ आए कोई वेदना
भाव सिन्धु बन जाए,
सूख रही धरती पर
हरियाली फिर छा जाए,

कारण क्या? सूख रहा है आब
तप्त मरुस्थल में, बनता जो भाप
यह कैसा धरतीपन, होता है आभास
मिटता नखलिस्तान, आया रेतीला तूफान

दिन प्रतिदिन की हलचल में,
यह धरती बंजर होती जाए,
पल्लवित पुष्पित हो अब क्या
जब हर बिरवा रौंदा जाए

कारण क्या? बदल रहे हैं प्रतिमान
फ़ैल रहा मरुस्थल, छाया अभिमान
गर्व नहीं अपने पर, रचा गया है स्वांग
स्वर्णिम फलकों पर, ऐसा कत्लेआम

किस ‘विजन वन वल्लरी’ पर
सोएगी वह ‘सुहाग भरी’
किस मलयानिल के झोंकों में,
अलसाएगी वह रागभरी

कारण क्या? टूट रहा है तार
राग छिड़ा यह मिलता नहीं तान
पसरी निश्चलता कैसी है आवाज
कैसा संगीत सृजन, बिखरा सारा साज

टूट गई सारी कड़ियाँ
मिलता नहीं है डोर
विश्वगीत अब कैसे गाएं
भूला प्रथम कवि का बोध

कारण क्या? भूल गया है संवाद
सूखा भावसिन्धु कैसे हो अनुवाद
कल-कल निनादिनी, है रेतीली धार
बाँधा सबने, कहाँ चले पतवार

आह! मधुर अब क्या हो?
पीड़ा फिर कब बोलेगी
था यह मधु उपवन
कोयल फिर कब कूकेगी

कारण क्या? छाई है अभिलाषा
जीवन की अब बदल रही गाथा
नहीं समझ में, सारा विष क्यों है फैला
मृगमरीचिका यह कैसी हुआ मन मैला

आह! यह विष अब कौन पिए
अमृत की छीना-झपटी में,
पीड़ा की वह अनुभूति निराली
विस्मृत, नीलकंठ के बनने में!

कारण क्या? मानसरोवर वीरान हुआ
सब हिम सा, होता नहीं पिघलाव यहाँ
कलकल निनाद नहीं कहाँ हो हंसों की क्रीड़ा
शून्य शून्य सब शून्य छाई है नीरवता!
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व्यंग्य

मैं,  और मेरा उद्देश्य
मुझ पर यह कुटिल व्यंग्य 
सहन कर इसे 
जीवन पग धरता हूं!
पर, इसे पाने के अर्थ-
प्रथम मैं खोजता 
अपना अस्तित्व।

यह क्रूर चक्र

इसमें उलझ
होकर दिग्भ्रमित
उद्भ्रांत सा हो जाता हूँ।
हूँ साधना का हेतु, पर
कर इसे विस्मृत 
साधक स्वयं बन जाता हूँ !

धूप

सुबह का वह
गुनगुना पन
जिजीविषा के साथ
अंजुरियों में
भर लेना चाहता हूँ
किसी वृक्ष के
घने पत्तों पर फैली
वह धूप !
पत्तियों के झुरमुटों से
झाँकती वह धूप !
उसके कलरव में
इठलाती वह धूप !
किसी रहस्य में
झाँकने को आतुर
वह धूप !
उसे समेट
चेहरे पर उड़ेल
दृष्टिबोध पा
ताजगी का अहसास
पाना चाहता हूँ
वह धूप !
हाँ, उसी को
अंजुरियों में ले
विभ्रम का आवरण
दूर कराना चाहता हूँ |

क्या कहूँ...


   १

क्या कहूँ
सब कुछ तो कह दिया गया है
शेष  क्या
कहने भर के लिए !
देखता आया हूँ उसे
सदैव छटपटाते हुए
निगला जा रहा जो
धीरे धीरे !
बदहवास सा दौड़ता
उसकी ओर
पर अचानक रूक
विचारमग्न
स्वयं को देखता
कभी किसी ने
कहा कहा था-
‘पहले अपने को देखो’
क्या कोई क्षमता नहीं
या उसी में पला हूँ
आखिर यह सारा उत्साह
यथार्थ से कर साक्षात्कार
हो जाता निराकार ! 

       २
एक अनुत्तरित प्रश्न
किसे बचाएँ, 
सब गड्डमड्ड,
युग का यह नूतन मानदंड
दृष्टि मेरी, खिंच जाती,
उस डोरी की ओर,
नाचती हैं जिन पर   
कठपुतलियाँ,
अस्तित्व खो,
उसके संकेतों का
करती इंतजार !

वह डोरी
बंधे बंधाये
मान्यताओं के थैलों को
देती वक्त बेवक्त खोल.

       ३
अपने में मौन, अपने में उदास
निहारता असहाय,
देखता उलझाव
हाँ, दिख गया वही
धूप में, मिट्टी सना
आदमी सा
वह बेसुध पड़ा
अरे! यह तो वही,
जो अकसर
दिखाई दे जाता है

लेकिन यह सब,
उसके लिए तो नहीं
यह आदमी या पागल
इतना है बेखबर!

किसी का स्वर उभरा-
कहाँ से कैसे आ गया
लग रहा, किसी ट्रेन पर
बैठा दिया गया और
ढीठ, शहर में उतर आया
शहर की, छवि मलीन हो रही,
पागलों की जमात बढ़ रही

अनभिज्ञ वह
भीड़ का मारा, बदहवास
हांफ रहा
आकस्मात, सब रूक
फैशनवाद का मारा
मानवाधिकार का दे नारा
उसे अकेला छोड़
वापस हो जाता
         ४

मै मौन, अपने में उदास
निहारता असहाय
सोचता हूँ,
मौनता यह
मुखर नहीं हो पाती
दबी दबी सी, घुटी घुटी सी,
कुंठित क्यों हो जाती

पसरा यह सिस्टम, क्या
छिपाए है उत्तर ?
शायद दे दे उत्तर
मानती भीड़ यह
अनेकान्तवाद !

लेकिन, निर्जीव, सब
अपने सिस्टम के बंदी,
दड़बे में अपने अपने, कैद
केवल बजाते ताली

और उसे देखो-
कर उन्हें आगे, रमा धुनी,
करता शव संधान,
अद्भुत यह तंत्रसाधना,
ऊँचाइयों पर पहुँच,
सिद्धिरस रस की ले चुस्कियां
जनतंत्र उसका मुस्कराता;

फिर हुई जीनक्रान्ति,
लेकर क्लोन साथ
भय दिखा
नया शगूफा, दे नारा
ले जाता रेवड़ हांक !
        ५

मैं मौन, अपने में उदास,
निहारता असहाय
सोच रहा बदहवास
क्या कहूँ,
किसे तलाशूँ
सब गड्डमड्ड
छाया अंधकार !

या फिर, मैं भी, अपनी
एक थीसिस गढ़
छोड़ दूँ
यह सारा जंजाल !

आह ! कितना निर्मम
मेरा यह भाव !
गला घोंट दूँ,
अपने प्रिय का,
भावी जीवन का
पतवार !

आह ! मेरी ईश्वरता !
लेकिन यह पथ !
क्या कहूँ, यहाँ
वह हो उकड़ूं, बन
बैठा, कोने का एक
पीकदान !

गर्वित वे, थूंक,
चिरत्रिषित, विजिगीषु
आगे बढ़ जाते
       ६

मैं, मौन अपने में उदास,
देख रहा-
अंतर्तम का गह्वर,
आत्माभिव्यक्ति का पड़ा बीज,
खो रहा सत, निःशेष आवरण,
अनुर्वर भूमि, छीजता बीज
संतुष्टि नहीं, अन्यत्र देख,
संभाव्य ईश्वरता का बीजांकुर
माल्यार्पण की नहीं अभिलाषा
ईश्वर बनने की आतुरता

पर, विस्मृति, यह कि
मानव हूँ, विवेक
बुद्धि का स्वामी हूँ
रहा न कोई
अब भाव सहज
अपना अपना सा
गढ़ रहा सत्य |
----------------- --विनय

Thursday, January 16, 2014

सपनों के इबारत..

                                       
जीने के उधेड़बुन में
बहुत सारे सपने
हमने सजा लिए हैं

ताश के पत्तों की तरह
जीतने के फेर में इसे 
हर वक्त फेंटते हैं

खेल हार जीत का समझ
इसकी ही चालों पर
हम जिया करते हैं|

और बाजियों में उलझ
एक अदद सपने के लिए
भरे बाजार, 
बदहवास घूमते हैं

सपने बोते सपने उगाते
दाँव पर सब, हम तो बस  
सपनों की खेती किया करते हैं

सोने सुलाने के खेल में
नींद के फलक पर, केवल
इबारत लिखा करते हैं|