भाव सिन्धु बन जाए,
सूख रही धरती पर
हरियाली फिर छा जाए,
कारण क्या? सूख रहा है आब
तप्त मरुस्थल में, बनता जो भाप
यह कैसा धरतीपन, होता है आभास
मिटता नखलिस्तान, आया रेतीला तूफान
दिन प्रतिदिन की हलचल में,
यह धरती बंजर होती जाए,
पल्लवित पुष्पित हो अब क्या
जब हर बिरवा रौंदा जाए
कारण क्या? बदल रहे हैं प्रतिमान
फ़ैल रहा मरुस्थल, छाया अभिमान
गर्व नहीं अपने पर, रचा गया है स्वांग
स्वर्णिम फलकों पर, ऐसा कत्लेआम
किस ‘विजन वन वल्लरी’ पर
सोएगी वह ‘सुहाग भरी’
किस मलयानिल के झोंकों में,
अलसाएगी वह रागभरी
कारण क्या? टूट रहा है तार
राग छिड़ा यह मिलता नहीं तान
पसरी निश्चलता कैसी है आवाज
कैसा संगीत सृजन, बिखरा सारा साज
टूट गई सारी कड़ियाँ
मिलता नहीं है डोर
विश्वगीत अब कैसे गाएं
भूला प्रथम कवि का बोध
कारण क्या? भूल गया है संवाद
सूखा भावसिन्धु कैसे हो अनुवाद
कल-कल निनादिनी, है रेतीली धार
बाँधा सबने, कहाँ चले पतवार
आह! मधुर अब क्या हो?
पीड़ा फिर कब बोलेगी
था यह मधु उपवन
कोयल फिर कब कूकेगी
कारण क्या? छाई है अभिलाषा
जीवन की अब बदल रही गाथा
नहीं समझ में, सारा विष क्यों है फैला
मृगमरीचिका यह कैसी हुआ मन मैला
आह! यह विष अब कौन पिए
अमृत की छीना-झपटी में,
पीड़ा की वह अनुभूति निराली
विस्मृत, नीलकंठ के बनने में!
कारण क्या? मानसरोवर वीरान हुआ
सब हिम सा, होता नहीं पिघलाव यहाँ
कलकल निनाद नहीं कहाँ हो हंसों की क्रीड़ा
शून्य शून्य सब शून्य छाई है नीरवता!
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