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Friday, October 10, 2014

विभीषण

कहते लोग आँखों में झाँक
इसकी गहराइयों में छिपे
रहस्यों को जान लेते हैं..!

पर, मैं अपनी पुतलियों को
हर वक्त नचाता हूँ,
कोई मेरे आँखों में झाँक
इसकी गहराइयों में छिपे
रहस्यों को न जान पाए, 
इसलिए तो
हर वह तरकीब अपनाता हूँ !

मेरी यह रहस्यमय शक्ति
हर उपवन आँगन से
नित नए रूपों के साथ
शिकार तलाश लेता है
अपने दुर्ग में बंदी बना
शक्तिहीन कर अब उसे
हर कहानी पलट देता है


क्योंकि मैं पुतलियाँ
नचाया करता हूँ, किसी के
देर तक पुतलियों में
निहारने पर, उसे लात मार
“विभीषण” बनने का डर
दिखा, उस विभीषण को
ढाल कर गाली में
नाभि में अमृत सुरक्षित कर
हर घर आँगन में
विचरण किया करता हूँ...!

युग बदला, देखो मेरी
नाचती पुतलियों का प्रभाव
विभीषण बने हैं कलंक कथा
ढाल कर उसे मुहावरे में,
तुमने छीना है उसके
राजतिलक का सरताज !

 विभीषण तुम्हारा जल रहा
विभीषण होने की आग में,  
सुरक्षित मेरा अमृत
मेरी नाभि में...!

जलाते रहो मुझे हर वर्ष
ढोल और नगाड़ों के साथ
पर, दिन दूनें रात चौगुने
चतुर्दिक गूँजता रहेगा
मेरा निर्मम अट्टहास,
राम भी निरुपाय, अनसुना सा
अब वह धनुष का टंकार..!

मैं नाचती पुतलियाँ ले
रहस्यमय शक्तियों के साथ 
सजा कर उगते सिरों को
नित नये-नये रूपों में 
नाभि की अमृत के साथ
अट्टहास किया करता हूँ..!
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