कतरा कतरा रिसता जाता
लमहा दर लमहा जीवन से,
नया पुराना क्या हो, यह
उलझन बन छाया मन में !
इन लमहों की है एक कहानी
गाथा बन जाए जो जीवन की
ठुकराते ठुकराते हम यूँ बढ़
जाते
हिसाब नहीं इनका दैनंदिन
में !
लमहों में जीने की चाह नहीं
वर्षों की बात किया बेमानी
है
समय प्रवाह को माना जीवन
पन्ने सादे रह गए दैनंदिन
में !
दर्द न कोई तुमको पहुँचे,
यह
पुरातन, खोएगा क्या नूतन
में ?
शुभकामनाओं का खेल निराला
छिपा तारीखों की उलझन में !
तारीखें दर तारीखें बदलें,
पर
रवायत यह, दर्ज रहे हर
पन्नें में
लमहा दर लमहा सीढ़ी बन जाए
चढ़ते जाएँ हम सब जीवन में !
-----------------------------------विनय