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Tuesday, December 30, 2014

लमहा दर लमहा सीढ़ी बन जाए...

कतरा कतरा रिसता जाता
लमहा दर लमहा जीवन से,
नया पुराना क्या हो, यह
उलझन बन छाया मन में !

इन लमहों की है एक कहानी
गाथा बन जाए जो जीवन की
ठुकराते ठुकराते हम यूँ बढ़ जाते
हिसाब नहीं इनका दैनंदिन में !

लमहों में जीने की चाह नहीं
वर्षों की बात किया बेमानी है
समय प्रवाह को माना जीवन
पन्ने सादे रह गए दैनंदिन में !

दर्द न कोई तुमको पहुँचे, यह
पुरातन, खोएगा क्या नूतन में ?
शुभकामनाओं का खेल निराला
छिपा तारीखों की उलझन में !

तारीखें दर तारीखें बदलें, पर
रवायत यह, दर्ज रहे हर पन्नें में
लमहा दर लमहा सीढ़ी बन जाए  
चढ़ते जाएँ हम सब जीवन में !

-----------------------------------विनय

Wednesday, December 17, 2014

प्रतीकवाद की निर्ममता

क्या लिखूँ
लिखने का आखिर मतलब क्या है
इस बुद्धि प्रदर्शन में
बच्चों की चीखों का
आखिर दर्शन क्या है
ओ दाढ़ीवाले
ओ तिलकवाले
ओ पगड़ीवाले
ओ क्रासवाले
तुम्हारे इन सब का मतलब क्या है
मासूमों के चेहरों पर
ये सब निशां नहीं थे
क्या इसीलिए तुम सबने
इन मासूमों को मारा है..!
धर्म नहीं यह
केवल है प्रतीकवाद
क्योंकि तुमको भी
मेरे जैसा दिखना है
या इन मासूमों जैसे
फिर मरना है