एक पगडंडी, जंगल से
गुजर जाती है;
इसके धूल में सना पैर,
अपनापन तलाशता है
एक नदी, झील सी
गहरी घाटी में गिर
झर झर निर्झर बन
धुंध उड़ा बह जाती है!
भीगने को आतुर मन
पर, दूर बहुत ऊपर,
उतरना अवश, और डर
कहीं डूब न जाऊं
और तो और वह रेलिंग
हमसे ही निर्मित, हमारी
सुरक्षा की सीमा, जो
रोकती है, डराती है,
दूर से, केवल दिखाती है
हाँ ! शायद एक दिन
पानी सूखने पर
उतरूंगा, लेकिन फिर वही डर
कहीं से, कोई बंध टूट पड़ा,
डूब जाऊंगा, पर वाह!
ऐसा कहाँ बंध
इस रेतीलेपन पर
क्या बचा है कोई श्रोत!
लेकिन, नदी में
यह जल कहाँ से, रास्ता भूल
कैसे आई जंगल से !
याद आ गया, वह
अनादिकाल का रिश्ता,
जिसे भूल, भूल गया है
अह्लाद, अब अपरिचित
अजनबीपन का रिश्ता
समझा रहा यह रेलिंग
तभी तो, इस ओर से,
इन्हें निहारता, हो विस्मित
सोच रहा, किससे है
किसको खतरा
क्या है रेलिंग का पाठ
फिर याद आ गया-
आदमी अब आदमीं कहाँ
भूल गया है सारा आदमीयत
रोटी कपड़ा और मकान में
जंगलों में जब था, तो
आदमी लगा करता था
बस्तियों में अब आकर
वही जानवर बना फिरता है
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