Popular Posts

Tuesday, January 22, 2019

गुनहगार

1

सच बताएँ,

आखिर क्यों ढोंग करते हो

विकल्पहीन दुनियाँ की

अपनी इस ढलायी पर!

बस उसी तरह, जैसे कि  

जिन्दा रहने के लिए

सांस लेना जरूरी है

लेकिन, तुम्हारी इस दुनियाँ में

अकसर वो सांस लेते धर लिए जाते हैं

जैसा कि कोई गुनहगार

गुनाह करते धर लिया जाता है।

2

सच बताएँ

मौन एक बेहतर विकल्प है

इसलिए नहीं कि

इसमें कोई अभिव्यक्ति छिपी है!

बल्कि इसलिए कि

अब हर कथन एक

विकल्पहीन दुनियाँ रचती है।

           *****

हे कविवर! तुम्हें युग-बोध नहीं

हूँ...ऊँ...अब तुम्हारा सौन्दर्यबोध,

बलात्कारी गढ़ रहा है, मानता हूँ

तुम्हारा यह कवित्व-बोध

निश्छल पवित्र महान हो सकता है

लेकिन, यह युग महान तो नहीं!

तुम्हें पता है? इस देह-युग में,

तुम्हारा यह कवित्व-सौन्दर्यशास्त्र

मात्र एक देह की अभिव्यंजना है!

हे कविवर! तुम्हें युग-बोध नहीं,

तुम्हारे कवि-मन के सुकोमल बिम्ब

अब सौन्दर्यबोध नहीं, देह-बोध

जगा जाते हैं ।

सोचो, तुम कवि हो! सभ्यता की

प्रतिमूर्ति हो, लेकिन

तुम्हारे प्रेमविदग्ध प्रेमातुर कवि-मन के

कवित्व-भाव में,

तुम्हारी अभिलाषाएँ आकांक्षाएँ और

विरहदग्ध पीड़ाएँ,

घुल घुलकर, देह बन,

किसी देहातुर को ललचाती हैं।

हाँ कविवर, तुम्हारा सौन्दर्यबोध

अब बलात्कारी गढ़ रहा है!

क्योंकि, तुम्हारे सामने

कोई कवि नहीं, बल्कि

प्रेतात्माएँ फिरा करती हैं, जिन्हें तुम

देह बना जाते हो!

          ****

माफीनामा

कवि जब विगलित होता है, तो
अन्तरात्मा को जतन से, शब्दों के
ताने-बाने पर उतार लेता है, और
विश्रांति के बाद, इसको बिछौना बना
इस पर आराम फरमाया करता है।

क्या बताऊँ, मेरी खाली जेब,
इस ताने-बाने में उलझ, मुझे
झकझोरती है, और सोचता हूं,
अब इसे ओढ़ूं या दसाऊँ, आखिर
इसका मैं क्या करूं..?

विवश, कवि को खोजता हूँ, शायद
जो, अब पतली गली निकल चुका है
लेकिन, कवि की यह अन्तरात्मा
मेरे हत्थे चढ़ गई है, अब इसी से
मेरी खूब कटा-जुज्झ होने लगी है.!

माफीनामे के साथ, कवि को दोषी बता
यह अन्तरात्मा मुझसे गिड़गिड़ाई,
मैंने भी अपनी सदाशयता के साथ
इसकी उपयोगिता समझ, सलीके से
इसे चौपरता, इसी से, अपने चेहरे को
पोंछा, चमकाया, फिर आहिस्ते से,
जैसा कि मै करता आया हूँ, इसे
अपने खाली जेब में धर लिया..!

वाह? अपने चेहरे की चमक के साथ, मैं
कवि की ओर मुड़ा, उसे सोते से जगाया, बोला
तुम्हारी यह अन्तरात्मा गजब की तौलिया है,
जेब भी भरी और चेहरा भी चमका लिया है..!

                     ******

पेटदतहा आदमी

सोचता हूँ अपने साथ

एक खिड़की लेकर चला करूँ

इसके पीछे से अपनी ओर

चुपके से झाँक लिया करूँ  

क्योंकि इस आदमी के

खाने और दिखाने के दाँत

अलग-अलग नहीं होते!

आदमी जानवर भी नहीं

कि सींग और बघनख से

इसे पहचान लिया करूँ।

असल में यह आदमी है

इसके पेट में नुकीले

दाँत उगा करते हैं

यह पेट दतहा आदमी

बड़ी आसानी से

चीजों को चुपचाप

धीरे-धीरे कुतर जाता है।

पर हाँ, अभी कल ही तो

श्रीमती जी ने कहा -

इस धूल गुबार और गर्द भरे

मौसम के जमाने में, भला अब

खिड़कियाँ कहाँ लगा करती हैं,

अगर खिड़कियाँ हैं भी तो

वे खुला नहीं करती, और

मुझे खिड़की खोलने से

मना कर दिया था।

बस मैं समझ गया था

शायद यह पेट-दतहा आदमी

बिन सींग और बघनख के

अब अनपहचाना ही रह जाए!  

     ****

बे-तुक की कविता

मैंने तो देखा है, और

शायद आप ने भी देखा हो

अकसर हम अपने घर के सामने के

घने हरियाले पत्तियों वाले पेड़ों को,

घर की खूबसूरती दिखाने के लिए

बेदर्दी से कटवा दिया करते हैं।

लेकिन लोग-बाग, इन पेड़ों के प्रति

थोड़ी सी सहृदयता भी दिखा देते हैं

जैसे कि इन पेड़ों को बौना बनाकर

अपने गमलों में सजा लिया करते हैं।

और, गमले की थोड़ी सी मिट्टी में

बेदर्दी की काँट-छाँट सह कर

ये पेड़, अपने विवश-बौनेपन से

हमारी हवेली की भव्यता में

आखिर, चार-चाँद लगा देते है।

जमीन से ऊपर उठ चुके हम लोग

अपनी भव्यता के कायल हैं,

तभी तो, पनपने वाले पौधों में

अपनी भव्यता की आड़ समझ

बौनेपन का रोग लगा देते हैं।

हाँ, अब हम मिट्टी-पानी के भय से

अपने चारों ओर की जमीन को

बेतरह बेहिसाब और पुख्ता, और

पक्का कर लिया करते हैं

जैसे कि हम, अकवि होने के डर से

कविता कविता लिख वाहेच्छा में

एक पक्का कवि बन लिया करते हैं।

फिर देखिए, भव्यता के हम अनुयायी

जमीन और मिट्टी से ही उठे हुए लोग

मिट्टी से जुड़े हर उस पौध को

अपनी बनाई पक्की जमीन पर, बेजान

खरपतवार समझ लिया करते है।

फिर, इनके उगने या फैलने के

विकल्पों को सीमित कर इन पर

पाबंदी लगा दिया करते हैं।

यदि बहुत ज्यादा हुआ तो इन्हें

लान के बाड़े में थोड़ी सी मिट्टी दे

शोभाकारक समझ भव्यता की तरह

अपने लिए ही उगा लिया करते हैं।

हाँ, न जाने क्यों, अकसर

हम अपनी भव्यताओं को भी

जमीन से ऊपर उठा समझ लेते हैं

तभी तो, वह तिरंगा भी किसी

ऊँचे बुर्ज पर लहराया जाता है।

शायद, यह भी इन्हीं ऊँचाइयों से

हमारी निचाइयों को परखता है

जैसे कि कवि होने के गुमान में

मैं अकवि, मेहनत कर

बे-तुक की कविता करने की

टुच्चई किया करता हूँ।

कवि की अन्तरात्मा

कवि जब विगलित होता है, तो 

अन्तरात्मा को जतन से, शब्दों के 

ताने-बाने पर उतार लेता है, और

विश्रांति के बाद, इसको बिछौना बना

इस पर आराम फरमाया करता है। 

क्या बताऊँ, मेरी खाली जेब,

इस ताने-बाने में उलझ, मुझे 

झकझोरती है, और सोचता हूं, 

अब इसे ओढ़ूं या दसाऊँ, आखिर

इसका मैं क्या करूं..? 

विवश, कवि को खोजता हूँ, शायद 

जो, अब पतली गली निकल चुका है 

लेकिन, कवि की यह अन्तरात्मा 

मेरे हत्थे चढ़ गई है, अब इसी से 

मेरी खूब कटा-जुज्झ होने लगी है.! 

माफीनामे के साथ, कवि को दोषी बता 

यह अन्तरात्मा मुझसे गिड़गिड़ाई, 

मैंने भी अपनी सदाशयता के साथ 

इसकी उपयोगिता समझ, सलीके से 

इसे चौपरता, इसी से, अपने चेहरे को 

पोंछा, चमकाया, फिर आहिस्ते से,

जैसा कि मै करता आया हूँ, इसे 

अपने खाली जेब में धर लिया..! 

वाह? अपने चेहरे की चमक के साथ, मैं 

कवि की ओर मुड़ा, उसे सोते से जगाया, बोला 

तुम्हारी यह अन्तरात्मा गजब की तौलिया है, 

जेब भी भरी और चेहरा भी चमका लिया है..!

Monday, January 21, 2019

न जाने क्यों मैं वक्त को

न जाने क्यों मैं वक्त को 

अकसर उस वक्त मुट्ठी से 

फिसल जाने देता हूँ, जब उसे 

मेरी मुट्ठी में होना चाहिए, या कि

उस वक्त मैं नहीं होता हूँ, 

जिस वक्त मुझे होना चाहिए।

हाँ, यह जो वक्त है न, वह भी 

हमें पहचानने की कोशिश में 

जर्रे-जर्रे में हमें खोजती है, 

लेकिन, अपना चेहरा छिपाये, मैं 

इस अनचीन्हे वक्त के बीच से, 

उससे बेपरवाह गुजर जाता हूँ। 

हाँ, मैं देखता आया हूँ, 

मुझे नहीं, वक्त को ही जैसे 

किसी चौराहे पर हमारी दरकार 

हुआ करती है, और अकसर, 

वहाँ मेरे अ-होने पर, मायूसी में 

उन जर्रों से हमारा पता पूँछती है। 

हाँ वक्त भी मायूस हुआ करती है, 

देखा नहीं आपने, जब फिज़ाओं में

उदासी तिरा करती है! यह 

फिज़ाओं की नहीं, वक्त की

मायूस उदासी हुआ करती है। 

और हम वक्त की शिकवा में

खुद ही जर्रे-जर्रे में खो रहे होते हैं,

हाँ, वक्त को भूलने वालों, 

वक्त को कहाँ है इतनी फुर्सत 

जर्रे-जर्रे से तलाश कर हमें, फिर से 

खड़ा कर देने की!