मैं रूप में व्यस्त
हूँ
आकार से त्रस्त हूँ
अभेद विश्व में
भेद से ग्रस्त हूँ
असीम की चाह है
पर सीमा में बंद हूँ
अरूप की चाह में
स्वरुप में अभ्यस्त
हूँ
रूप के श्रृंगार में
छिपा रहा अरूप को
दीप का प्रकाश, मैं
दिखा रहा सूर्य को
प्रकाश का पुंज मैं
प्रसार का बोध है
पर, बंद हूँ स्व में
पर का नहीं शोध है
देख कर इसी को
मग्न हूँ स्वभाव में
भूल कर सिन्धु को
खो रहा बिंदु में
इस अशेष विश्व में
खोज रहा शेष को
अज्ञान के भाव में
खो रहा ज्ञान को
जिस स्वरूप का
प्रसार
है दिग दिगंत में,
उस अनंत गगन को
समेटता छितिज में
सीमा के भाव में
छिपा सभी द्वंद्व है
असीम के आभाव में
शूल बना दंभ है
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