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Saturday, September 15, 2012

दंभ


मैं रूप में व्यस्त हूँ

आकार से त्रस्त हूँ

अभेद विश्व में

भेद से ग्रस्त हूँ

 

असीम की चाह है

पर सीमा में बंद हूँ

अरूप की चाह में

स्वरुप में अभ्यस्त हूँ

 

रूप के श्रृंगार में

छिपा रहा अरूप को

दीप का प्रकाश, मैं

दिखा रहा सूर्य को

 

प्रकाश का पुंज मैं

प्रसार का बोध है

पर, बंद हूँ स्व में

पर का नहीं शोध है

 

देख कर इसी को

मग्न हूँ स्वभाव में

भूल कर सिन्धु को

खो रहा बिंदु में

 

इस अशेष विश्व में

खोज रहा शेष को

अज्ञान के भाव में

खो रहा ज्ञान को

 

जिस स्वरूप का प्रसार

है दिग दिगंत में,

उस अनंत गगन को

समेटता छितिज में

 

सीमा के भाव में

छिपा सभी द्वंद्व है

असीम के आभाव में

शूल बना दंभ है

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