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Tuesday, January 22, 2019

माफीनामा

कवि जब विगलित होता है, तो
अन्तरात्मा को जतन से, शब्दों के
ताने-बाने पर उतार लेता है, और
विश्रांति के बाद, इसको बिछौना बना
इस पर आराम फरमाया करता है।

क्या बताऊँ, मेरी खाली जेब,
इस ताने-बाने में उलझ, मुझे
झकझोरती है, और सोचता हूं,
अब इसे ओढ़ूं या दसाऊँ, आखिर
इसका मैं क्या करूं..?

विवश, कवि को खोजता हूँ, शायद
जो, अब पतली गली निकल चुका है
लेकिन, कवि की यह अन्तरात्मा
मेरे हत्थे चढ़ गई है, अब इसी से
मेरी खूब कटा-जुज्झ होने लगी है.!

माफीनामे के साथ, कवि को दोषी बता
यह अन्तरात्मा मुझसे गिड़गिड़ाई,
मैंने भी अपनी सदाशयता के साथ
इसकी उपयोगिता समझ, सलीके से
इसे चौपरता, इसी से, अपने चेहरे को
पोंछा, चमकाया, फिर आहिस्ते से,
जैसा कि मै करता आया हूँ, इसे
अपने खाली जेब में धर लिया..!

वाह? अपने चेहरे की चमक के साथ, मैं
कवि की ओर मुड़ा, उसे सोते से जगाया, बोला
तुम्हारी यह अन्तरात्मा गजब की तौलिया है,
जेब भी भरी और चेहरा भी चमका लिया है..!

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