न जाने क्यों मैं वक्त को
अकसर उस वक्त मुट्ठी से
फिसल जाने देता हूँ, जब उसे
मेरी मुट्ठी में होना चाहिए, या कि
उस वक्त मैं नहीं होता हूँ,
जिस वक्त मुझे होना चाहिए।
हाँ, यह जो वक्त है न, वह भी
हमें पहचानने की कोशिश में
जर्रे-जर्रे में हमें खोजती है,
लेकिन, अपना चेहरा छिपाये, मैं
इस अनचीन्हे वक्त के बीच से,
उससे बेपरवाह गुजर जाता हूँ।
हाँ, मैं देखता आया हूँ,
मुझे नहीं, वक्त को ही जैसे
किसी चौराहे पर हमारी दरकार
हुआ करती है, और अकसर,
वहाँ मेरे अ-होने पर, मायूसी में
उन जर्रों से हमारा पता पूँछती है।
हाँ वक्त भी मायूस हुआ करती है,
देखा नहीं आपने, जब फिज़ाओं में
उदासी तिरा करती है! यह
फिज़ाओं की नहीं, वक्त की
मायूस उदासी हुआ करती है।
और हम वक्त की शिकवा में
खुद ही जर्रे-जर्रे में खो रहे होते हैं,
हाँ, वक्त को भूलने वालों,
वक्त को कहाँ है इतनी फुर्सत
जर्रे-जर्रे से तलाश कर हमें, फिर से
खड़ा कर देने की!
No comments:
Post a Comment