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Monday, January 27, 2014

क्या कहूँ...


   १

क्या कहूँ
सब कुछ तो कह दिया गया है
शेष  क्या
कहने भर के लिए !
देखता आया हूँ उसे
सदैव छटपटाते हुए
निगला जा रहा जो
धीरे धीरे !
बदहवास सा दौड़ता
उसकी ओर
पर अचानक रूक
विचारमग्न
स्वयं को देखता
कभी किसी ने
कहा कहा था-
‘पहले अपने को देखो’
क्या कोई क्षमता नहीं
या उसी में पला हूँ
आखिर यह सारा उत्साह
यथार्थ से कर साक्षात्कार
हो जाता निराकार ! 

       २
एक अनुत्तरित प्रश्न
किसे बचाएँ, 
सब गड्डमड्ड,
युग का यह नूतन मानदंड
दृष्टि मेरी, खिंच जाती,
उस डोरी की ओर,
नाचती हैं जिन पर   
कठपुतलियाँ,
अस्तित्व खो,
उसके संकेतों का
करती इंतजार !

वह डोरी
बंधे बंधाये
मान्यताओं के थैलों को
देती वक्त बेवक्त खोल.

       ३
अपने में मौन, अपने में उदास
निहारता असहाय,
देखता उलझाव
हाँ, दिख गया वही
धूप में, मिट्टी सना
आदमी सा
वह बेसुध पड़ा
अरे! यह तो वही,
जो अकसर
दिखाई दे जाता है

लेकिन यह सब,
उसके लिए तो नहीं
यह आदमी या पागल
इतना है बेखबर!

किसी का स्वर उभरा-
कहाँ से कैसे आ गया
लग रहा, किसी ट्रेन पर
बैठा दिया गया और
ढीठ, शहर में उतर आया
शहर की, छवि मलीन हो रही,
पागलों की जमात बढ़ रही

अनभिज्ञ वह
भीड़ का मारा, बदहवास
हांफ रहा
आकस्मात, सब रूक
फैशनवाद का मारा
मानवाधिकार का दे नारा
उसे अकेला छोड़
वापस हो जाता
         ४

मै मौन, अपने में उदास
निहारता असहाय
सोचता हूँ,
मौनता यह
मुखर नहीं हो पाती
दबी दबी सी, घुटी घुटी सी,
कुंठित क्यों हो जाती

पसरा यह सिस्टम, क्या
छिपाए है उत्तर ?
शायद दे दे उत्तर
मानती भीड़ यह
अनेकान्तवाद !

लेकिन, निर्जीव, सब
अपने सिस्टम के बंदी,
दड़बे में अपने अपने, कैद
केवल बजाते ताली

और उसे देखो-
कर उन्हें आगे, रमा धुनी,
करता शव संधान,
अद्भुत यह तंत्रसाधना,
ऊँचाइयों पर पहुँच,
सिद्धिरस रस की ले चुस्कियां
जनतंत्र उसका मुस्कराता;

फिर हुई जीनक्रान्ति,
लेकर क्लोन साथ
भय दिखा
नया शगूफा, दे नारा
ले जाता रेवड़ हांक !
        ५

मैं मौन, अपने में उदास,
निहारता असहाय
सोच रहा बदहवास
क्या कहूँ,
किसे तलाशूँ
सब गड्डमड्ड
छाया अंधकार !

या फिर, मैं भी, अपनी
एक थीसिस गढ़
छोड़ दूँ
यह सारा जंजाल !

आह ! कितना निर्मम
मेरा यह भाव !
गला घोंट दूँ,
अपने प्रिय का,
भावी जीवन का
पतवार !

आह ! मेरी ईश्वरता !
लेकिन यह पथ !
क्या कहूँ, यहाँ
वह हो उकड़ूं, बन
बैठा, कोने का एक
पीकदान !

गर्वित वे, थूंक,
चिरत्रिषित, विजिगीषु
आगे बढ़ जाते
       ६

मैं, मौन अपने में उदास,
देख रहा-
अंतर्तम का गह्वर,
आत्माभिव्यक्ति का पड़ा बीज,
खो रहा सत, निःशेष आवरण,
अनुर्वर भूमि, छीजता बीज
संतुष्टि नहीं, अन्यत्र देख,
संभाव्य ईश्वरता का बीजांकुर
माल्यार्पण की नहीं अभिलाषा
ईश्वर बनने की आतुरता

पर, विस्मृति, यह कि
मानव हूँ, विवेक
बुद्धि का स्वामी हूँ
रहा न कोई
अब भाव सहज
अपना अपना सा
गढ़ रहा सत्य |
----------------- --विनय

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