टप....टप ...टप ...!
छप्पर की ओरी से
पानी की गिरती वे बूंदें,
उनसे बनते ये बुलबुले
बचपन में देखा करता
हाँ , वारिश के दिनों में
अकसर ऐसा होता
बूंदों से बने कटानों में,
बुलबुलों का वह बहना,
विस्मित, उन्हें निहारा करता|
उनका रंग, सतरंगी रंगों का
मन को प्यारा लगता
न जाने क्यों उनसे
एक नाता बनता,
हाँ , वही बूंदें,
बुलबुले बना अपनी धारा में,
उन्हें ,बहा ले जाती !
ये बुलबुले !
एक के पीछे एक बुलबुले !!
पीछा करते एक दूसरे का ,
धारा में बहते जाते|
विजयी होता, वही बुलबुला
अधिक देर तक अस्तित्व बना,
दूर तक जो बह जाता।
देखा लिया था,
उनकी प्रतियोगिता....!
कोई बुलबुला दूसरे से मिल ,
समेट उसका आकार ,
अपने को बड़ा बना लेता ,
तो कोई कंकड़ से टकरा,
अस्तित्व खो देता ,
और फिर वह फूटा
पानी में मिल जाता।
कोई दूर जाता
आँखों से ओझल होता
आखिर में वह भी मिटता,
धारा में खोता।
ताली बजा कर प्रतियोगिता का,
समापन मैं करता..!
आज सोचता हूँ,
क्या खूब रही !
मैंने तो बचपन में ही...,
देख लिया था...,
बुलबुलों की प्रतियोगिता!!
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