भटकता हुआ, मैं अकेला
उन्मुक्त, विचरण कर रहा
आकांक्षा ले आकार
जाज्ज्वल्यमान जीवन का,
इसे अभीष्ट बना,
विस्मृत कर-
पुनः मर्त्यता को, और
विजिगिषा हेतु,
धीरे-धीरे क्षीण हो रहा!
कौन तोड़ेगा यह विभ्रम
अस्तित्वहीन, अननंतर,
खो जाएगा, यह
साध्य सकल!
किन्तु हेतु क्या हो,
बनी रहे जो
चिर अभिलाषा
यह क्या...! प्रतिध्वनि..!
है केवल वह-
मानवपन
सदाकार, अमर्त्य
एक संचित निधि!
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