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Saturday, November 24, 2012

भूत


विचारों में निमग्न ,
पहुंचा, नदी के रेती पर,
वहां बैठ, विचारों की
श्रंखला में ऐंठ,
अनबूझे, प्रश्नों में उलझ,
टकटकी लगी थी
नदी की धारा पर!
जहाँ, नदियों का संगम,
एक, दे धारा को गति,
अपना अस्तित्व
समेट रही थी!
यह गति, क्षणिक
भंवरों में उलझ, आगे
बढ़ जाती थी !
आह ! यह त्याग !
सोचा मैंने
एक नदी का |
तभी आहट, देखा,
कुछ लोग, उसे
अपने कन्धों पर,
उठाए, ले जा रहे थे,
वह कारुणिक दृश्य !
नहीं, अरे ! हम भी तो,
अपनी-अपनी,
मृतात्माओं का,
बोझ ढोते हैं, फिर,
क्यों हों उदास !
वह शव, जीवित हम,
वह चेतनाशून्य, हम
भावशून्य, एक जीवन का
तोड़ बंध, हम जड़ता का
बाँध बंध, दूसरों के सहारे,
अपनी-अपनी
चिता तक पहुंचते हैं !
और, जलकर, जलाकर,
राख का ढेर
बना देते है |
हुतात्माओं सा,
रूप धर, भूत बन,
मंडराते हैं |
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