Popular Posts

Thursday, June 22, 2017

जब मैं देखता हूँ, समाजों में

जब मैं देखता हूँ, समाजों में
यहाँ, सिधाई को, अकसर
दलित की तरह ट्रीट किया जाता है,
असल में सिधाई और कुछ नहीं
एक नियम भर है, और नियम ही
धीरे-धीरे अछूत होता जाता है।

जब भी देखता हूँ, समाजों में,
बस, मैं ये नहीं कहता कि
सिधाई नियम ही है, हो सकता है
इसमें भी कुछ भ्रम हो, कुछ
गलतियां हों, लेकिन इन्हें ही
चाहे अनचाहे, बे-नियम बताकर,
अयोग्य घोषित कर, अकसर
बस्तियों के किनारे, सिधाई को
तनहा छोड़ दिया जाता है।

हाँ, जब मैं देखता हूँ, समाजों में
सिधाई को बे-नियम बताकर
श्रेष्ठता के ये दम्भी, उन्हें,
सलीके के मोहताज, हीन और
बे-कद्री का बिम्ब बना देते हैं।

जब मैं देखता हूँ, समाजों में,
खाँचे बनते हुए देखता हूँ,
इन खाँचों में, बेरहमी से,
सिधाई को, ठूस-ठूस कर, भर
सदियों से, तड़फड़ाते, विवश,
छोड़ दिया जाता है, यही तो,
दलित होते जाने की प्रक्रिया है।

जब मैं देखता हूँ, समाजों में
बड़े करीने से, वे, स्वयं को,
सजा लिया करते हैं, और ये, उन्हें,
सीधेपन को, बेवकूफियों का पुलिंदा,
बता दिया जाता हैं।

जब मैं देखता हूँ, समाजों में
सिधाई और कुछ नहीं,
केवल मजदूर भर हुआ करती है,
यह कोई माफियागीरी नहीं, अवश,
बस ईंट और गारे की तरह 
मीनार में इस्तेमाल हुआ करती है।
और ये करीने से सजे लोग, इसे,
मीनार की कमजोरी का भी,
जिम्मेदार बता दिया करते हैं..!

जब मैं देखता हूँ, समाजों में,
ऐसे ही, अछूत बना करते हैं।
            ******

No comments: