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Thursday, June 22, 2017

बड़ी अलोकतांत्रिक हैं रोटियाँ!

यहाँ जिसे देखा, फकत
दो जून की रोटी में
भिड़े पड़े देखा!
हाँ, जब भी उसे देखा,
रोटी ही बेलते देखा !!

लेकिन, बड़ी अलोकतांत्रिक हैं
ये रोटियाँ, हाँ,
लोकतंत्र की आड़ में
दो जून से भटककर
बदनसीब होती हैं रोटियाँ।

बदनसीबी में, मुस्कुराती हैं रोटियाँ
टूटते चाँद का तिलस्म देख,
कवि को धिक्कारती हैं रोटियाँ
सारा भ्रम ढह गया है, क्योंकि
चाँद सी नहीं होती हैं अब रोटियाँ!

भूख ही नहीं, भूखे को भी
जानती हैं, ये मचलती सी रोटियाँ
दो जून भर की नहीं, अब
गोल-गोल घूमती हैं रोटियाँ!
रूप बदलती, अब
तिजोरी के तिलिस्म को भी
पहचानती हैं रोटियाँ।

दो जून का ग्लोबलाइजेशन
जानती हैं ये रोटियाँ,
तभी तो, वह भी रात दिन
बेलता है रोटियाँ,
तिजोरियों में भर-भर
बेतहाशा रख रहा है रोटियाँ।

अंतरिक्ष में जाकर, दो जून के
कांसेप्ट को बदलते देखा।
तभी तो, जब भी देखा
उसे, रोटी ही बेलते देखा,
दो जून की उसकी भूख
तिजोरियों में ढलते देखा।

यदि, मुझे मिल जाए कोई
ढूँढ़ता अपनी दो जून की रोटियाँ
तो बता दूँ उसे, उसके
दो जून की रोटियों का पता
चाँद में नहीं, अब तिजोरियों में
छिप रही हैं ये रोटियाँ..!
बड़ी अलोकतांत्रिक बेरहम सी
ये फकत दो जून की रोटियाँ..!!

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