एक सुबह ऐसी थी
जैसे वह पसरी थी
उठ खड़ा हुआ था ,
तब मैं, क्षितिज में,
स्थिर सूरज को
देख रहा था !
हरियाले घासों पर पड़े
ओस की बूँदों को
पैरों से रौंद रहा था
इस भींगेपन को
अन्तस् में सौंप रहा था
फिर, देख लिया उसे फुदकते
खंजन की उस चंचलता को,
नयनों की उपमा में, जिसे,
स्मृतियाँ खोज रही थी!
सुबह के अलसाये पल को
खुलते पलकों की फलक से
सूरज ने छीन लिया था,
चढ़ते सूरज की ताप सह
मुरझाई दूबों को रौंद
निरुद्देश्य सी यह कविता
बस, मैं, यूँ ही,
गुनगुना रहा था...!
--------------------------विनय
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