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Wednesday, November 5, 2014

यह डगमग धरती...!





आओ,
चलें धरती से दूर
थोड़ी सी चहलकदमी
कर आएँ..! 

कहते हैं यह धरती भी
दूर से चाँद-तारे सी
नजर आती है, या फिर
किसी धूल भरे बादल में
खोई सी रहती है,

यदि ऐसा ही है, तो
दूर से, हम
अदृश्य, अस्तित्वविहीन
से दिखते होंगे..!

यदि कोई देखे
दूरदर्शी, से, तो बेशक,
केवल गुत्थम-गुत्था,
बिलबिलाते कीड़े जैसे
हम हास्यास्पद से
नजर आते होंगे..!

बेचारी यह धरती
दूर से एक बिंदु सी
मन में उभरती,
तमाम धूमकेतुओं
टूटते तारों से सहमी,
अपने सरोकारों को खेती
सबको लेकर तिरती..!

इधर हम,
शून्य में तिरती
धरती के सरोकारों से
बेखबर, अपने-अपने
सरोकारों को गढ़, उसे ले,
धरतीपने से दूर,
अपने-अपने हिस्से की
धरती के लिए अधीर
उद्वेलित नजर आते हैं
और...
तमाम सरोकारों से
घिरी यह धरती
डगमग नजर आती है..!

आओ, व्यर्थ के
सरोकारों को छोड़,
चलें धरती से दूर
थोड़ी सी चहलकदमी
कर आएँ..!
और...
इसके सरोकारों को भी
देख आएँ...

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