धरती पर पसरा यह बंजर, देख
जाने क्यों जी धक् कर जाता है।
यह मन सूनापन फिर देख वहाँ,
कराह, सिहर-सिहर सा जाता है।
मन के अंतस का सिहरनपन,
वहाँ झट दूब उगाने लगता है।
पर मिट्टी का वह बंजरपन,
जहाँ दूब झुलस यह जाता है।
सोचा, हाथों में ले खुरपी,
अब मिट्टी ही बदल देना है।
पनपे बिरवे और बीज यहाँ,
ऐसी मिट्टी वहाँ भर देना है।
साँझ ढले, कह रोई मिट्टी,
मुझको क्यों कर बदला है।
पत्थर से भी बन निकली,
तू खाद हमें नहीं दे पाया है।
खारापन लिए हृदय में, यह
मिट्टी सूखी आँखों फिर रोई है।
सोख लिया मेरा सब कुछ,
बंजर कह निर्दय तूने बदला है।
क्या कर लेगा उपजाऊपन से,
तू अपने मन का ही करता है।
मिट्टी मैं तो सब बिरवे की, पर,
सब अपनी-अपनी ही बोते हैं।
मैं तो सब बिरवे की थी जननी,
मेरे उपजाऊपन का यह पैमाना है।
पर जंगल -जंगल यह बात चली,
तूने जंगलीपन कह इसे दुत्कारा है।
जंगल-जंगल, पत्ते-पत्ते से ही,
यह मिट्टीपन बनता आया है।
पर क्रान्तिवीर बन कर तुमने,
यह कैसा उपजाऊपन लाया है?
बदलो! तुम मुझको बेशक बदलो,
बंजरपन तेरे मन की ही छाया है।
तेरे मन के इस खारेपन से, सोचो,
कोई उपजाऊ मिट्टी भी बच पाई है?
मैं बन क्रान्तिवीर निस्तेज खड़ा,
अब खुरपी हाथों से छूट पड़ी है।
अपलक देख रहा इस धरती को,
बालक ने फिर से माँ को देखा है।
- विनय
महोबा
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